Saturday, February 2, 2013

कविता : आत्म - हत्या का आवेदन


उनसे 
मुझसे 
मठे से 
नमक के घोल अथवा तेजाब से
किन्तु गुस्से से नहीं
महज भावावेश में भी नहीं 
और हताश होकर तो कदापि नहीं 
बल्कि प्रेम से 
चेतना की परिपूर्णता में 
और स्वेच्छा तथा आत्म विश्वास के समंदर में 
मेरी सब तमन्नाओं की
मूसला और झकड़ा
दोनों जड़ें
अंतिम स्नान चाहती हैं 
जो कभी मेरे खून पसीने से 
गहरा - छितरा रही थीं 
मानस की उर्वरता को जकड रही थीं 
आज बेताब हैं उखड़ने को 
मुझसे उन्हें 
अपनी अमूर्तता चिर स्थाई लगती है 
जबकि वे सजीव होना चाहती हैं 
बंगला ,गाड़ी ,नौकर-चाकर ,
सुरा-सुंदरी ,डालर -पौंड आदि आदि रूपों में 
वे समझ चुकी हैं मुझपे अब सूखा मच रहा है 
बूँद बूँद से मै उनकी प्यास नहीं बुझा सकूंगा 
तडपा तडपा कर मार दूँगा 
अतः वे दूरदर्शी तमन्नाएँ 
किसी योग्य 
ऊगते सूरज ,
या पानी भरे मेघ के यहाँ जन्मना चाहती हैं 
बड़ी ज़ल्दबाज़ी है उन्हें 
वे सोचती हैं 
कल मरना ही है तो आज अभी क्यों नहीं ?
वे आत्मा की तरह अमर हैं 
और पुनर्जन्म में उनका पूर्ण विश्वास है 
अतः मेरे यहाँ से मरकर 
कहीं और अवतार लेने की तमन्ना से 
मुझको सविनय 
अपनी हत्या कर डालने का 
आवेदन पत्र लिख रही हैं I
 -डॉ. हीरालाल प्रजापति 


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