ज़िंदगी तेरे बिना भी जान चलती
ही रही ॥
हाँ कमी बेशक़ तेरी हर आन खलती
ही रही ॥
चाहकर भी मैं नहीं तेरे मुताबिक़
बन सका ,
तू मेरे साँचे में अनचाहे ही
ढलती ही रही ॥
होके पानी भी मैं तुझको बर्फ़
सा जमता रहा ,
और तू मेरे लिए लोहा भी हो
गलती रही ॥
हाथ आते-आते तू जो हाथ से फिसली मेरे ,
ज़िंदगी फिर ज़िंदगी भर हाथ मलती
ही रही ॥
मेरी ख़ातिर जो तेरा दिल बस
बुझाए ही रहा ,
उम्र भर वो शम्ए उल्फ़त मुझमें
जलती ही रही ॥
दिल में जिस दिन से मेरे पैदा
हुई हसरत तेरी ,
मारता जितना रहा ये उतना पलती
ही रही ॥
ख़ुद को घिस-घिस कर मैं नन्हें
दीप सा जब से जला ,
तब से सब दुनिया बुझाने मुझको
झलती ही रही ॥
इक दफ़ा भी तो न ग़म घर से हुए
मेरे दफ़ा ,
हर ख़ुशी हर बार बिन टाले ही
टलती ही रही ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति