Sunday, March 29, 2015

मुक्तक : 686 - और नहीं कुछ प्राण था वो


उसको विपल भर विस्मृत करना संभव नहीं हुआ ॥
प्रतिक्षण हृद ही हृद रोने से टुक रव नहीं हुआ ॥
और नहीं कुछ प्राण था वो पर उस बिन मैं ; सोचना ,
होगी मेरी क्या लौह-विवशता जो शव नहीं हुआ ?
[ विपल = पल का साठवाँ भाग / हृद ही हृद = दिल ही दिल में /टुक रव = थोड़ा सा भी शोर  ]
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, March 28, 2015

मुक्तक : 685 - इक अहा सौ


इक अहा सौ आहों के भरने के बाद ।।
हिम सी यदि ठंडक मिले जरने के बाद ।।
ऐसी आहा ऐसी शीतलता है ऐसी ,
फिर से ज्यों जी जाए जिव मरने के बाद ।।
[ जरने=जलना ,जिव=जीव ]
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

गीत : फिर आज याद मुलाक़ात की वो रात आई


फिर आज याद मुलाक़ात की वो रात आई ॥
लिए हथेली पे क्यूँ मौत ख़ुद हयात आई ?
गुजर गए के लिए अगर मैं बस रोऊँ ।
कि वक़्त ऐसे तो मैं और-और भी खोऊँ ।
बिसार कर बीती सुध अब लूँ आगे की ,
चली गई जो घड़ी वो किसके हाथ आई ?
कहीं भी रोक लो मुमकिन हो तो दिल आने को ।
ये खूबरुई तो है बस हमें बनाने को ।
बनाए चेहरों को मासूम संगदिल फिरते ,
समझ इक उम्र के बाद हमें ये बात आई ॥
जिये कोई कि मरे नहीं हमारा ग़म ।
वो माना है दुश्मन पड़ौसी है ताहम ।
ख़मोश कैसे रहें कहाँ से लाएँ सबिर ?
यहाँ पे मातम है वहाँ बरात आई ॥
कि उनके आगे हमें हमेशा झुकना पड़ा ।
वो जब चले तो चले रुके तो रुकना पड़ा ।
लगाई हमने कभी जो भूले शर्त कोई ,
वो जीते अपने तो हाथों में सिर्फ़ मात आई ॥
[हयात=जीवन/खूबरुई=सुंदरता/संगदिल=पाषाण-हृदय/ताहम=फिर भी/ख़मोश=चुप/सबिर=धैर्य ]
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, March 26, 2015

मुक्तक : 684 – सच न केवल


सच न केवल दृगपटल में ही अवस्थित है ॥
अपितु मन के तल में भी अब वह प्रतिष्ठित है ॥
उसकी ही संप्राप्ति अंतिम ध्येय जीवन का -
दूसरा कोई न मेरा लक्ष्य निश्चित है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, March 22, 2015

गीत (34) - सब कुछ वो मुझसे छीन......


सब कुछ वो मुझसे छीन-
झपट आज ले गया ॥
हिलमिल के रहते थे
जो मेरे संग प्यार से ।
पाले थे मैंने जितने भी
विहंग प्यार से ।
पिक,काक,शुक,कपोत
और बाज ले गया ॥
दो-चार-पाँच-छः या
कदाचित् वो सात थे ।
पर जो भी मेरे पास में
जवाहिरात थे ।
जैसे कि हीरा,नीलम,
पुखराज ले गया ॥
कपड़े जो तन पे थे बस
उनको छोड़ के सभी ।
चद्दर , अँगोछा भी गया
ले मोड़ के सभी ।
जूते भी और टोप
माने ताज ले गया ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, March 21, 2015

गीत (33) - जो भी है मुझमें मिट्टी.....


जो भी है मुझमें मिट्टी
तुम आज उसको छूकर
आँखों को चौंधियाता
कर दो विशुद्ध सोना ॥
जो मुझमें ऊगकर यों
भरपूर लहलहाए ।
जल भी न दूँ मैं फिर भी
प्यासों से मर न जाए ।
कुछ इस तरह से मेरे
बंजर में हल चलाओ
पढ़-पढ़ के मंत्र मुझमें
जादू के बीज बोना ॥
बिन झिझके बिन विचारे
होकर निःशंक मुझ पर ।
लोगों ने छाप डाले
झूठे कलंक मुझ पर ।
तुम मेरी गंगा-जमुना
तुम मेरा आबे ज़मज़म
घिस-घिस , रगड़-रगड़ के
मुझको नहाना-धोना ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, March 20, 2015

मुक्तक : 683 - मैं सब कुछ हो


मैं सब कुछ हो मगर उनकी नज़र में कुछ नहीं था रे !!
हो ऊँचा आस्माँ लगता उन्हें नीची ज़मीं था रे !!
कहा करते थे वो तब भी मुझे बदशक्ल ,बदसूरत ,
ज़माना जब मुझे सारा कहा करता हसीं था रे !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 


Thursday, March 19, 2015

मुक्तक : 682 - जादू सा कोई मुझपे


जादू सा कोई मुझपे यकायक ही चल गया ?
नाक़ाबिले-तब्दील मैं पूरा बदल गया ॥
पहले तो भरा रहता था सीने में भी दिमाग़ ,
अब सिर से भी कमबख़्त छलक कर निकल गया ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, March 15, 2015

गीत (32) - चीत्कार-क्रंदन से लथपथ


चीत्कार-क्रंदन से लथपथ 
एक विहँसता गान मिला ॥
जैसे इक लघु सर्प नेवले 
से करता हो महायुद्ध ।
जैसे इक मूषक बिल्ली पर 
भय तजकर हो रहा क्रुद्ध ।
आँधी से इक दीप जूझ 
तम का करते अवसान मिला ॥
जैसे कोई नंगे पाँवों 
काई पर सरपट भागे ।
जैसे पीछे भूखे सिंह से 
हिरण बचे आगे-आगे ।
वर्षा से गलने से बचता 
कच्चा खड़ा मकान मिला ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, March 14, 2015

मुक्तक : 681 - अदा उम्र भर फर्ज़ हमने किये


कभी भूलकर ना किसी को ज़रा भी ,
कोई चोट पहुँचाई और ना रुलाया ।।
अदा उम्र भर फर्ज़ हमने किये और ,
हर इक क़र्ज़मयसूद हमने चुकाया ।।
यही इक गुनह वज़्हे मस्रूफ़ियत हम ,
से बेशक़ हुआ है कि सच चाहकर भी ,
न मस्जिद में जाकर नमाजें अता कीं ,
न मंदिर में जाकर कभी सिर झुकाया ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, March 13, 2015

मुक्तक : 680 - कल मैं आसान था


कल मैं आसान था पर आज सख़्त-मुश्किल हूँ ॥
पहले वीरान था अब पुरशबाब महफ़िल हूँ ॥
वक़्त-ओ-हालात ने घिस-घिस के कर दिया पैना ,
पहले मक़्तूल था अब खौफ़नाक-क़ातिल हूँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, March 10, 2015

*मुक्त-मुक्तक : मन दुःख से परिपूर्ण आज ही......


मन दुःख से परिपूर्ण 
आज ही मेरा साला ॥
और आज ही पर्व ये 
उजले रंगों वाला ॥
हर्षित होंगे शत्रु मुझे 
तक-तक पीड़ा में ,
सोचूँ ! ढँक रक्खूँ या 
पोत लूँ मुख पे काला ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, March 9, 2015

160 : ग़ज़ल - इतनी तो मसर्रत दे ॥



इतनी तो मसर्रत दे ।।
अब ग़म न दे , शामत दे ।।1।।
बिक जाऊँगा मैं भी गर ,
मुँहमाँगी जो क़ीमत दे ।।2।।
सब क़र्ज़ चुका दूँगा ,
दो रोज़ की मोहलत दे ।।3।।
होने को तरोताज़ा ,
आराम की फ़ुर्सत दे ।।4।।
बोझ अपना सकूँ ढो ख़ुद ,
रब इतनी तो ताक़त दे ।।5।।
नफ़्रत तो न दे चाहे ,
मत मुझको मोहब्बत दे ।।6।।
मत जिस्म अकेले को ,
दिल को भी नज़ाकत दे ।।7।।
मत सिर्फ़ अमीरों को ,
ग़ुरबा को भी दौलत दे ।।8।।
गुमनाम को मशहूरी ,
बदनाम को शुह्रत दे ।।9।।
कुछ शौक़ दे जीने को ,
कुछ ख़्वाब या हसरत दे ।।10।।
जीने की न दे तो फिर ,
मरने की इजाज़त दे ।।11।।
(मसर्रत =ख़ुशी ,शामत =मृत्यु ,ग़ुरबा =ग़रीबों )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, March 8, 2015

गीत (31) - वह पहले सा अब न लुभाता ॥


वह पहले सा अब न लुभाता ॥
मैं भी उसको खींच न पाता ॥
दिखते थे मुख बुझे-बुझे से ,
उन पर कान्ति नहीं खिलती थी ।
इक दूजे से रोज मिले बिन ,
चित को शान्ति नहीं मिलती थी ।
मैं अब उसके गेह न जाऊँ –
वो भी मेरे ठौर न आता ॥
जनम-जनम तक साथ निभाने
की बातें हम करते थे ।
है संबंध अटूट हमारा
आपस में दम भरते थे ।
पहले था साँकल से भी पक्का
अब धागे सा हमारा है नाता ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, March 7, 2015

गीत (30) - केवल क़द-काठी तक मेरा हृदय आँकते हो


पेड़ हरा औ भरा भी सूखी 
डाली सा लगता ॥
इक तू न हो तो सारा मेला 
खाली सा लगता ॥
तू जो चले सँग तो काँटों की 
चुभन भली लगती ।
तू जो साथ खाए तो नीम 
मिसरी की डली लगती ।
तुझ बिन अपनी ईद मुहर्रम
 जैसी होती है –
तू हो तो होलिका-दहन 
दीवाली सा लगता ॥
झर-झर बहती रहतीं , रहतीं 
तनिक नहीं सूखी ।
जब तेरे दर्शन को अँखियाँ 
हो जातीं भूखी ।
मुझको थाल सुनहरा लगने 
लगता है सूरज –
चाँद चमकती चाँदी वाली 
थाली सा लगता ॥
केवल क़द-काठी तक मेरा 
हृदय आँकते हो ।
रहन-सहन पहनावा भी तुम 
व्यर्थ झाँकते हो ।
मेरे तल तक पहुँचो फिर 
गहराई बतलाना –
नील-गगन से नद भी उथली 
नाली सा लगता ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, March 6, 2015

गीत (29) - उसके साथ खेलकर होली.....


उसके साथ खेलकर होली
आज तृप्त मन को करना है ॥
जिसको बिन पूछे मैं अपना
श्वेत-धवल मन दे बैठा ।
और रँगा इतना उसके रँग
इंद्रधनुष ही बन बैठा ।
अपने सप्त रँगों से उसके
वर्ण-सिक्त मन को करना है ॥
मैं उसमें ऐसा ही फैलूँ
जैसी वह मुझमें व्यापे ।
या मैं उसको कर दूँ विस्मृत
या वह भी मुझको जापे ।
भूल एक पक्षीय कभी ना
प्रेम-क्षिप्त मन को करना है ॥
जिसकी याद हृदय में सावन-
जेठ हरी ही रहती है ।
नीले सागर सी जो मन में
सदा भरी ही रहती है ।
बूँद-बूँद उसकी उलीचकर
पूर्ण-रिक्त मन को करना है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, March 5, 2015

*मुक्त-मुक्तक : होली के हीले मुझको.......


होली के हीले मुझको 
बिरले ही ढंग से ॥
तज सप्त-वर्ण रँगना 
उसे अपने रंग से ॥
सोचूँ उसे न फिर भी 
हो उज्र कुछ भी जो –
गोली सा जा के उसके 
लग जाऊँ अंग से ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, March 3, 2015

मुक्तक : 679 - कभी दूर से


ये कहने का मुझसे सँभलकर चलाकर ;
कभी दूर से तो कभी पास आकर ;
मैं पूछूँ ज़माने से क्या हक़ है उनको ,
जो चलते हैं ख़ुद लड़खड़ा-लड़खड़ाकर ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, March 2, 2015

मुक्तक : 678 - क्यों लगे है हूँ पीछे ?


क्यों लगे है हूँ पीछे होके सब ही से आगे ?
किस तरह के ये मेरे सोये भाग हैं जागे ?
जब से आई है कोमल सेज मेरी मुट्ठी में ,
नींद आँखों से मेरी छूट-छूट कर भागे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, March 1, 2015

मुक्तक : 677 - मत इश्क़ को समझना


उसको हिसाब का नहीं मीज़ान समझना ॥
छोटा न लतीफ़ा बड़ा दीवान समझना ॥
कुछ भी भले समझना , समझना न तू मुश्किल ,
पर इश्क़ को समझना न आसान समझना ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...