Sunday, September 29, 2013

मुक्तक : 353 - मेरे ग़रीबख़ाने पे


मेरे ग़रीबख़ाने पे दीवाने ख़ास में ॥
बिलकुल दुरुस्त-चुस्त  होशो-हवास में ॥
क्या हो गया जो मिलते थे बुर्क़े में दूर से ,
पास आ रहे हैं आज कम से कम लिबास में ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 352 - कैसा पागल


कैसा पागल बादल है कहता है प्यासा हूँ ?
क्यों लबरेज़ समंदर बोले खाली कासा हूँ ?
किसके खौफ़ से आज बंद हैं मुँह बड़बोलों के ?
भारी भरकम टन ख़ुद को कहता है माशा हूँ ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, September 27, 2013

मुक्तक : 351 - आस-विश्वास


आस-विश्वास मारे जा रहे हैं ॥
आम-ओ-ख़ास मारे जा रहे हैं ॥
पहले ख़ुशबू ही देते थे मगर अब ,
फूल सब बास मारे जा रहे हैं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, September 26, 2013

मुक्तक : 350 - वो जबसे ही कुछ


वो जबसे ही कुछ दूर जाने लगे ॥
ख़यालों में तबसे ही छाने लगे ॥
नहीं लगते थे कल तलक अच्छे अब ,
वही सबसे ज़्यादा लुभाने लगे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 349 - सख़्त ख़ल्वत में



सख़्त ख़ल्वत में भयानक जले -कटे जैसी ॥
चील सी गिद्ध सी बाज और गरुड़ के जैसी ॥
जबसे महबूब उठा पहलू से मेरे तबसे ,
मैं हूँ नागिन तो रात मुझको नेवले जैसी ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, September 25, 2013

मुक्तक : 348 - जिसका जैसा नसीब


जिसका जैसा नसीब होता है ॥
उसको वैसा नसीब होता है ॥
मुफ़लिसी गर लिखी हो क़िस्मत में ,
किसको पैसा नसीब होता है ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, September 24, 2013

मुक्तक : 347 - प्यार के चक्कर में



प्यार के चक्कर में बेघरबार होकर ख़ुश रहूँ ॥
मैं हूँ पागल इश्क़ की बीमार होकर ख़ुश रहूँ ॥
बज़्म,मजलिस,अंजुमन,पुरशोर-महफ़िल से जुदा ,
बेज़ुबाँ वीराँ में गुमसुम नार होकर ख़ुश रहूँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, September 22, 2013

मुक्तक : 346 - यूँ ही शेरों से



यूँ ही शेरों से नहीं कोई उलझ पड़ता है ?
जिसमें होता है दम-ओ-गुर्दा वही लड़ता है ॥
बज़्म-ए-रावण में कोई लँगड़ा पहुँच जाये मगर ,
पाँव अंगद की तरह कौन जमा अड़ता है ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 345 - रेग्ज़ारों की बियाबाँ


रेग्ज़ारों की बियाबाँ की हर डगर घूमा ॥
तनहा-तनहा,गली-गली,शहर-शहर घूमा ॥
मेरी तक़्दीर कि तक़्दीर में जो था ही नहीं ,
जुस्तजू में मैं उसी की ही उम्र भर घूमा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, September 21, 2013

मुक्तक : 344 - लगती है थोड़ी


लगती है थोड़ी देर मगर फ़िक्र तू न कर ॥
खाली न जाएगी मेरी दुआ-ए-पुरअसर ॥
तू जिसको माँगता है तू क़ाबिल भी उसके है ,
बेशक़ तू हक़ को पाएगा यक़ीन कर उस पर ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 343 - न ख़्वाबों में


न ख़्वाबों में हक़ीक़त में मुलाकातें करेंगे पर......
मेरे सँग दिन-दुपहरी-शाम और रातें करेंगे पर.......
किया करते थे जैसे रूठने से पहले बढ़-बढ़ कर ,
मुझे लगता था वो इक रोज़ ख़ुद बातें करेंगे पर.......
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, September 20, 2013

मुक्तक : 342 - बेबस हो वो ख़रीदे


बेबस हो वो ख़रीदे मुँहमाँगे दाम में ॥
जो चीज़ रोज़ आती इंसाँ के काम में ॥
गोदाम में कर सूरज को क़ैद बेचें वो ,
एक-एक किरन इक-इक सूरज के दाम में ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, September 18, 2013

मुक्तक : 341 - वस्ल की जितना हो


वस्ल की जितना हो उम्मीद कमजकम रखना ॥
हिज्र के बाद भी हँसने का दिल में दम रखना ॥
वर्ना मत भूलकर भी राहे इश्क़ में अपनी ,
आँखें दौड़ाना-बिछाना-लगाना-नम रखना ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 340 - पुरग़ज़ब सादा


पुरग़ज़ब सादा हर इक उनका लिबास ॥
देखने में भी नहीं वो ख़ूब-ओ-ख़ास ॥
फ़िर भी जाने कैसा है उनमें खिँचाव ?
मैं चला जाता हूँ खिँँचता उनके पास ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, September 17, 2013

मुक्तक : 339 - बिना गुनाह के


बिना गुनाह के ही जब मिली सज़ा यारों ॥
लगा कि जीते जी वरी गई क़ज़ा यारों ॥
लगा कि उनको कर दिया गया हो फाड़ के दो ,
थी जिनकी होके दो होने की इक रज़ा यारों ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, September 15, 2013

मुक्तक : 338 - बर्बाद मेरी हस्ती


बर्बाद मेरी हस्ती को सँवार दिया था ॥
यों डूबती कश्ती को पार उतार दिया था ॥
मुझ जैसे गिरे क़ाबिले-नफ़रत को उठा जब ,
मजनूँ को जैसे लैला वाला प्यार दिया था ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 337 - क्या सितम-ज़ुल्म-जफ़ा


क्या सितम-ज़ुल्म-जफ़ा करना बुरी बात नहीं ?
क्या मोहब्बत में दग़ा करना बुरी बात नहीं ?
तो जो ऐसा हो सितमगर-ओ-दग़ाबाज़ उससे ,
अपना वादा-ओ-वफ़ा करना बुरी बात नहीं ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, September 12, 2013

मुक्तक : 336 - लगता खुली किताब


लगता खुली किताब है जो एक राज़ वो ॥
दिखने में सीधा-सादा बड़ा चालबाज़ वो ॥
कर-कर के बातें सिर्फ़ वफ़ा आश्नाई की ,
देता दग़ा है दिल पे गिराता है गाज़ वो ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, September 11, 2013

मुक्तक : 335 - रोजी-रोटी न


रोजी-रोटी न काम-धाम की पर्वाह तू कर ॥
फिर न रुसवाई की न नाम की पर्वाह तू कर ॥
अपने पाँवों को पर बनाने की बस फ़िक्र को रख ,
इश्क़ कीजै तो मत मक़ाम की पर्वाह तू कर ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 334 - इक नहीं खोटा


( चित्र google search से साभार )
इक नहीं खोटा सभी चोखे दिये हैं ॥
सब ने मिल-जुल कर जो कुछ धोख़े दिये हैं ॥
आस्तीनों में जो पाले साँप थे तो ,
मैंने ही डसने के ख़ुद मौक़े दिये हैं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, September 10, 2013

मुक्तक : 333 - तोड़ डालूँ या



तोड़ डालूँ या स्वयं ही टूट लूँ ?
सौंप दूँ सब कुछ या पूरा लूट लूँ ?
स्वर्ण अवसर है कि प्रहरी सुप्त हैं , 
क्यों न कारागृह को फाँदूँ छूट लूँ ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, September 9, 2013

मुक्तक : 332 - अंतरतम की पीड़


अंतरतम की पीड़ घनी हो होकर हर्ष बनी ॥
जीवन की लघु सरल क्रिया गुरुतर संघर्ष बनी ॥
तीव्र कटुक अनुभव की भट्टी में तप कर निखरा ,
मेरी आत्महीनता ही मेरा उत्कर्ष बनी ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, September 8, 2013

मुक्तक : 331 - या रब कभी-कभार


या रब कभी-कभार तो मनचाही चीज़ दे ॥
थोड़ा ही खाने को दे वलेकिन लज़ीज़ दे ॥
आती है शर्म उघड़े बदन भीड़-भाड़ में ,
दो चड्डियाँ , दो पेण्ट , दो कुर्ते-कमीज़ दे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, September 7, 2013

मुक्तक : 330 - कैसे टूटेगा भला


( चित्र google search से साभार )
कैसे टूटेगा भला , हाथ-पाँव-सर कोई ?
गोटमार मेले में यदि , चले न पत्थर कोई ॥
तर्कहीन और खोखले , तजकर रीति-रिवाज़ ,
अपनाले जो लाभप्रद , परम्परा हर कोई ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 329 - भोजन का भूख


( चित्र google search से साभार )
भोजन का भूख में भी जो उपयोग ना हुआ ॥
क्या लाभ कि उपलब्धि का उपभोग ना हुआ ॥
लादे फिरे ज्यों पीठ पुस्तकों की बोरियाँ ,
फिर भी रहे गधा गधा ही लोग ना हुआ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 328 - कभी कभार ही पीड़ा


कभी-कभार ही पीड़ा-दुःख को हर्ष अतिरेक कहा हो ॥
महामूढ़ता को चतुराई-बुद्धि-विवेक कहा हो ॥
उलटबाँसियाँ कहना यद्यपि रुचिकर तनिक न मुझको ,
तदपि विवशतावश ही कदाचित इक को अनेक कहा हो ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, September 6, 2013

मुक्तक : 327 - ऐसा नहीं कि उससे


( चित्र google search से साभार )
ऐसा नहीं कि उससे मेरा ग़म था कहीं कम ॥
मैं नाचता था वो मनाता रहता था मातम ॥
तक्लीफ़ में ख़ुश रहने का फ़न मुझको था पता ,
वो लुत्फ़ो-मज़ा में भी ढूँढ लेता था इक ग़म ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, September 5, 2013

मुक्तक : 326 - शिक्षा के मंदिर थे


शिक्षा के मंदिर थे जो आलय भी नहीं रहे ॥
शिक्षक पूर्वकाल से गरिमामय भी नहीं रहे ॥
दोहा गुरु-गोविंद खड़े दोऊ..... का व्यर्थ हुआ ,
शिक्षक के विद्यार्थियों में भय भी नहीं रहे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, September 4, 2013

मुक्तक : 325 - सदा जले थे


सदा जले थे जिसकी उत्कट भूख पिपासा में ॥
जिसे किया था प्रेम प्यार की ही प्रत्याशा में ॥
नहीं मिला साँसे देकर भी जिसका अंतर्तम ,
रहे अंत तक हाय उसी की ही अभिलाषा में ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, September 3, 2013

105 : ग़ज़ल - चाहत के कुछ मुताबिक़



चाहत के कुछ मुताबिक़ , करने नहीं वो देता ।।
पानी को रोक रखता , बहने नहीं वो देता ।।1।।
मैं आस्माँ के ऊपर , तालिब हूँ देखने का ,
मेरी झुकी नज़र को , उठने नहीं वो देता ।।2।।
आज़ाद हूँ मैं जैसा , जी चाहे झूठ बोलूँ ,
सच झूठ-मूठ में भी , कहने नहीं वो देता ।।3।।
जब तक खड़े हैं चलने , को मारता है कोड़े ,
चलने लगो तो आगे , बढ़ने नहीं वो देता ।।4।।
करता है यों हुक़ूमत , अपने सिवा किसी को ,
टुक बादशाह भरसक बनने नहीं वो देता ।।5।।
मुमकिन न रह गया है , अब उसके साथ रहना ,
देता है दम-ब-दम ग़म , हँसने नहीं वो देता ।।6।।
मरहम नहीं लगाता , उलटे कुरेदता है ,
हर हाल ज़ख्म मेरे , भरने नहीं वो देता ।।7।।
हरगिज़ नहीं हूँ यारों , मैं बाँझ पेड़ लेकिन ,
गुंचों को नोचकर ही , फलने नहीं वो देता ।।8।।
रखता है मुझ पर इतनी , तो बंदिशें लगाकर ,
ख़्वाबों को ख़्वाब तक में , तकने नहीं वो देता ।।9।।
ये ज़िन्दगी नहीं है , हरगिज़ अज़ीज़ मुझको ,
जीता हूँ क्योंकि सचमुच , मरने नहीं वो देता ।।10।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, September 1, 2013

104 : ग़ज़ल - कुछ ख़तावार कुछ गुनाहगार



कुछ ख़तावार , कुछ गुनाहगार होना था ।।
साफ़ होने को कुछ तो दाग़दार होना था ।।1।।
ताज जैसा ही आह ! एक सरफ़रोशोंं का ,
इस जहाँँ में कहीं अजब मज़ार होना था ।।2।।
सच ही होना था कामयाब गर सियासत में ,
खोल में गाय के तुम्हें सियार होना था ।।3।।
कैसे उनपे बरसते ? क्या न पहले से दिल में ,
उनकी ख़ातिर कहीं भरा ग़ुबार होना था ?4।।
पास होनीं थीं उनके कुछ निशानियाँ मेरी ,
मुझपे भी उनका कुछ तो यादगार होना था ।।5।।
मैं तो सौ जान से रहूँ सदा फ़िदा उन पर ,
मुझपे उनको भी ऐसा जाँनिसार होना था ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...