Thursday, February 27, 2014

मुक्तक : 494 - ताक़त के साथ-साथ



ताक़त के साथ-साथ में रखते हों शरफ़ भी ।।
क्या इस जहाँ में अब भी इस क़दर हैं हिम्मती ?
गर जानता हो कोई तो फ़ौरन बताये मैं –
महलों में उनको ढूँढूँ या खोजूँ कुटी-कुटी ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, February 26, 2014

मुक्तक : 493 - हँसने की आर्ज़ू में


( चित्र Google Search से साभार )
हँसने की आर्ज़ू में ज़ार रो के मरे  है ॥
खा-खा के धोखा खामियाजा ख़ास भरे है ॥
अहमक़ नहीं वो नादाँ नहीं तो है और क्या ?
इस दौर में उम्मीदे वफ़ा जो भी करे है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 492 - बतलाओ न दो-चार नहीं


( चित्र Google Search से साभार )

बतलाओ न दो-चार नहीं सैकड़ों दफ़ा ॥
तारी किये हैं तुमने मुझपे ज़ुल्म और जफ़ा ॥
फिर भी किये ही जाऊँ तुमसे इश्क़ और वफ़ा ॥
होता नहीं हूँ क्यों कभी भी बरहम और ख़फ़ा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, February 25, 2014

मुक्तक : 491 - है गर तवील ज़िंदगी


( चित्र Google Search से साभार )
है गर तवील ज़िंदगी की तुझको सच में चाह ।।
दूँगा मैं तुझको सिर्फ़ोसिर्फ़ एक ही सलाह ।।
है क्योंकि हक़परस्त तू ले इसलिए ये मान ,
मत सुर्ख़ को कहना तू सुर्ख़,स्याह को न स्याह ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, February 23, 2014

मुक्तक : 490 - चुप-चुप रहने वाला


( चित्र Google Search से साभार )

चुप-चुप रहने वाला आगे बढ़-बढ़ बोले ।।
नये-नये नायाब बहाने गढ़-गढ़ बोले ।।
ये हैरतअंगेज़ कारनामा वो करता ,
जिसके सिर पर जादू इश्क़ का चढ़-चढ़ बोले ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

119 : ग़ज़ल - जबकि दिल आ गया


जबकि दिल आ गया किसी पर है ।।
कैसे फिर कह दूँ हाल बेहतर है ?1।।
बस किसी और से तू कहना मत ,
बात हालाँकि ये उजागर है ।।2।।
उसको साबित किया गया है सच ,
पर वो झूठा-ग़लत सरासर है ।।3।।
आँख क्यों ख़ुद ब ख़ुद न झुक जाए ,
रू ब रू शर्मनाक मंज़र है ।।4।।
मुझसे पूछो न आशिक़ी है क्या ,
कैसे कह दूँँ कि दर्देसर भर है ?4।।
काम दमकल का बाल्टी से लूँ ,
जल रहा है जो ये मेरा घर है ।।5।।
नींद आए मगर न आएगी ,
जिसपे लेटा हूँ गड़ता पत्थर है ।।6।।
तुझसे बेहतर नहीं वो क्यों मानूँ ,
जब वो आगे है , तुझसे ऊपर है ?7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, February 22, 2014

मुक्तक : 489 - इसकी धड़कन अलग है



इसकी धड़कन अलग है बेढब है ॥
इसमें पहले भी न थी ना अब है ॥
दिल को मेरे खँगाल लो जितना ,
आर्ज़ू के सिवा यहाँ सब है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 488 - वो जेह्नोदिल में जो



वो जेह्नोदिल में जो बस आन बसा , जा न सका ।।
वो स्वाद हमने चखा जिसका मज़ा , जा न सका ।।
वो हो न पाया मयस्सर कहीं भी फिर पर उस -
शराबे वस्ल का ताउम्र नशा , जा न सका ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, February 21, 2014

118 : ग़ज़ल - मुझे दोस्तों से मिला


मुझे दोस्तों से मिला न तू ,
मुझे दुश्मनी का ही शौक़ है ।।
मुझे प्यार से तू देख मत ,
मुझे बेरुख़ी का ही शौक़ है ।।1।।
मुझे इंतिहा में न बाँध तू ,
मुझे हद से पार तू जाने दे ,
मुझे मत ख़ुदा का दे वास्ता ,
मुझे काफ़िरी का ही शौक़ है ।।2।।
मुझे हर तरफ़ ही दिखे सियह ,
औ' सियाह बस ये मैं सच कहूँ ,
मुझे रौशनी का क़त्ई नहीं ,
मुझे तीरगी का ही शौक़ है ।।3।।
मुझे कह लो तुम बड़े शौक़ से ,
बड़ा मतलबी , बड़ा ख़ुदग़रज़ ,
करूँ क्या मगर जो कि ख़ुद से ही ,
मुझे आशिक़ी का ही शौक़ है ।।4।।
मेरी ज़िंदगी का जो हाल हो ,
मुझे फिर भी सर की क़सम मेरे ,
बड़ी मुश्किलें हैं यहाँ मगर ,
इसी ज़िंदगी का ही शौक़ है ।।5।।
ये भला किसे नहीं हो पता ,
कि शराब कैसी है चीज़ पर ,
वो करे भी क्या कि जिसे फ़क़त ,
बड़ा मैकशी का ही शौक़ है ?6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, February 20, 2014

मुक्तक : 487 - झुका-झुका सर



झुका-झुका सर उठा-उठा कर निगाह करते हैं ।।
कभी-कभी कुछ बता-बता कर गुनाह करते हैं ।।
न जिसके क़ाबिल,न जिसके लायक मगर ख़ुदाई से ,
उसी को पाने की ज़िद उसी की वो चाह करते हैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, February 19, 2014

मुक्तक : 486 - पहले के जितने भी थे

पहले के जितने भी थे वो 
सारे ही अब बंद ।।
इश्क़-मुहब्बत फ़रमाने 
वाले छुईमुई ढब बंद ।।
क्या चुंबन क्या आलिंगन 
अब कर सब व्रीड़ाहीन ,
शर्म-हया-संकोच-लाज-
लज्जा-लिहाज़ सब बंद ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक 485 - इक बूँद भर से कलकल


इक बूँद भर से कलकल आबे चनाब होकर ॥
भर दोपहर का ज़र्रे से आफ़्ताब होकर ॥
अपने लिए तो जैसा हूँ ठीक हूँ किसी को ,
दिखलाना चाहता हूँ मैं कामयाब होकर ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, February 18, 2014

मुक्तक : 484 - नहीं कुछ मुफ़्त में


नहीं कुछ मुफ़्त में देता वो पूरा दाम लेता है ॥
वगरना उसके एवज में वो दूना काम लेता है ॥
नहीं वो हमसफ़र मेरा न मेरा रहनुमा लेकिन ,
फिसलने जब भी लगता हूँ वो आकर थाम लेता है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, February 17, 2014

मुक्तक : 483 - मुसाफ़िर कोई


मुसाफ़िर कोई हमसफ़र चाहता है ॥
सड़क के किनारे शजर चाहता है ॥
कि जैसे हो तितली को गुल की तमन्ना ,
मुझे भी कोई इस क़दर चाहता है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, February 16, 2014

मुक्तक : 482 - मैं छोटी-छोटी सुइयों


मैं छोटी-छोटी सुइयों वो लंबे तीरों का ॥
मैं सौदागर हूँ छुरियों का वो शमशीरों का ॥
मैं सिर पर रख बेचूँ लोहा वो दूकान सजा ,
वो भी मुझसा ही है फ़र्क है बस तक़्दीरों का ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 481 - यों दिखा करता हूँ





यों दिखा करता हूँ फूला सा भले मैं ॥

पर दबा हूँ आपकी स्मृति-तले मैं ॥

आगे यद्यपि मैं विहँसता हूँ जगत के ,

झेलता हूँ किन्तु हिय में ज़लज़ले मैं ॥

-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 480 - सारी दुनिया से अलग


सारी दुनिया से अलग भाग-भाग रहता था ।।
खोया यादों में उसकी जाग-जाग रहता था ।।
मैं भी हँसता था कभी जब वो मुझपे आशिक़ थे ,
दिल ये मेरा भी सब्ज़ , बाग़बाग़ रहता था ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, February 15, 2014

117 : ग़ज़ल - इस दुनिया में मेरे जैसा



इस दुनिया में मेरे जैसा शायद कोई और नहीं ।।
सब पे अपने-अपने छत हैं बस मेरा ही ठौर नहीं ।।1।।
डाकू ,चोर ,लुटेरे ,तस्कर ,ठग जग में पग-पग पर ,पर ;
चित्त चुराने वाला मिलता कोई माखन चौर नहीं ।।2।।
उसको छोटे-छोटे कीट-पतंगे साफ़ दिखें लेकिन ,
हम जैसों पर उसकी पैनी नज़रें करतींं ग़ौर नहीं ।।3।।
मनवा कर रहता वो अपनी हर बात ज़माने से ,
बेशक़ उसके पाँव में जूते सिर पर कोई मौर नहीं ।।4।।
अपने पैर खड़ी नारी का मान बहुत ससुराल में अब ,
वो बहुओं पर भारी पड़ती सासों वाला दौर नहीं ।।5।।
हैराँ हूँ क्यों चाट रहे हैं कुत्ते-बिल्ली आपस में ,
उनका तो दुश्मन से प्यार-मोहब्बत वाला तौर नहीं ?6।।
सोना-चाँदी , मानव , पशु-पक्षी , धरती-आकाश तलक ,
सब कुछ वश में कर लोगे पर मन पर ज़ोर नहीं ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, February 14, 2014

मुक्तक : 479 - इश्क़ का नाम हो


इश्क़ का नाम हो सरनाम न बदनाम बने ।।
आबे ज़मज़म रहे , न मैक़दे का जाम बने ।।
सख़्त पाबन्दियाँ हों पेश इश्क़बाज़ी पे ,
सात पर्दों की बात इरादतन न आम बने ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

कविता : कैसे सिगरेट अब जलाएंगे ?


वाँ तो दिन पे भी ढेर सूरज हैं ,
और याँ शब पे इक चिराग़ नहीं ।
याँ पे भूखे भी लोग मर जाएँ ,
और वाँ जह्र फाँक झाग नहीं !
मुझको ज़िंदा ही फूँक पछताएँ ,
कैसे सिगरेट अब जलाएंगे ?
राख़ ठोकर से खूर गुस्साएँ ,
इसमें अब कोई आग-वाग नहीं ॥
सात पर्दों में असली सूरत रख ,
तुम ज़माने में हो ख़ुदा बजते ,
लाख चेहरे हैं एक चेहरे पर ,
इक भी चेहरे पे कोई दाग़ नहीं !!
सच कहूँ तो ज़ुबाँ का हूँ कड़वा ,
मीठा बोलूँ तो चापलूस तभी
रेंकनें-भौंकने का आदी मैं ,
कूकने का गले में राग नहीं ॥    
सबको अपना सा क्यों समझते हो ?
क्या मज़ेदार बात करते हो ?
मुझसे आसाँ सवाल बच्चों से !
सोचते होगे याँ दिमाग़ नहीं ॥

-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, February 13, 2014

मुक्तक : 478 - मुक्त मन से बन सँवर कर


मुक्त मन से बन सँवर कर पूर्णतः वह धज्ज थी ।।
मुझसे सब इच्छाओं को सट मानने झट सज्ज थी ।।
केलि के उपरांत आभासित हुआ वह त्यागिनी ,
अप्रतिम सुंदर मनोहर भर थी पर निर्लज्ज थी ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, February 12, 2014

मुक्तक : 477 - देखने में ही नहीं


देखने में ही नहीं टूटा हुआ सा मैं ।।
दरहक़ीक़त ही तो हूँ फूटा हुआ सा मैं ।।
वज़्ह तुझको ही पकड़ने की तमन्ना में ,
दीन , दुनिया , ख़ुद से भी छूटा हुआ सा मैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 476 - सारे कंकड़ वो


सारे कंकड़ वो बेशक़ीमती नगीने सा ।।
सब ही पतझड़ वही बसंत के महीने सा ।।
दुनिया गर एक खौफ़नाक दरिया तूफ़ानी ,
वो,लगाता जो पार लगता उस सफ़ीने सा ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, February 11, 2014

मुक्तक : 474 - दस्ती - रूमाल ठीक


दस्ती-रूमाल ठीक-ठीक न धोना आया ॥
पतला सा धागा सूई में न पिरोना आया ॥
तुमने उसको पहाड़ टालने का काम दिया ,
जिसको टीला तो क्या ढेला भी न ढोना आया !
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, February 10, 2014

मुक्तक : 473 - एहसास दे शरबत



एहसास दे शरबत जो पुरानी शराब सा ॥
सच सामने हो फिर भी हो महसूस ख़्वाब सा ॥
फ़ौरन निगाह का जनाब इलाज कीजिए ,
अच्छा नहीं चराग़ दिखना आफ़ताब सा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, February 9, 2014

मुक्तक : 472 - क़तरा-क़तरा तेरी


क़तरा-क़तरा तेरी यादों में आँखों ने ढाया ।।
अश्क़ जब ख़त्म हो गए तो खूँ भी छलकाया ।।
राह देखी कुछ ऐसी तेरी दम-ए-आख़िर तक ,
पलकों को मरके भी खुल्ला रखा न झपकाया ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

116 : ग़ज़ल - मेरी धड़कन की तो


मेरी धड़कन की तो रफ़्तार बिगड़ जाती है ।।
जब हथेली वो मेरी चूम पकड़ जाती है ।।1।।
जब शुरूआत बिगड़ जाए तो अक़्सर देखा ,
बात छोटी से भी छोटी हो बिगड़ जाती है ।।2।।
खुरदुरेपन से निकल जाएँ जभी सोचें बस ,
अपनी चिकनाई तभी और रगड़ जाती है ।।3।।
जिसकी सुह्बत को तरसते हैं अपनी क़िस्मत से ,
हमसे अक़्सर वो न मिलने को बिछड़ जाती है ।।4।।
मेरी चादर है कि रूमाल है कोई यारों ,
सिर को ढँकने जो लगूँ रान उघड़ जाती है ।।5।।
उसको मैं सुल्ह को जितना ही मनाना चाहूँ ,
नाज़नीं उतना वो और-और झगड़ जाती है ।।6।।
ज़िंदगी जैसे लिबास इक हो किसी मुफ़्लिस का ,
कितने पैबंद लगाऊँ ये उधड़ जाती है ।।7।।
मैं जो मंज़िल की तरफ़ अपने बढ़ाऊँ दो डग ,
मुझसे ये चार क़दम दूर को बढ़ जाती है ।।8।।
काली करतूतों के खुलने के नहीं डर से ये ,
आदतन ही मेरी पेशानी सुकड़ जाती है ।।9।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, February 8, 2014

मुक्तक : 471 - ज़िंदगी को इस क़दर


ज़िंदगी को इस क़दर सर्दी हुई है ,
फ़ौर लाज़िम मौत की गर्मी हुई है ॥
थक गई चल-चल,खड़े रह-रह के अब बस ,
बैठने दरकार झट कुर्सी हुई है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, February 7, 2014

मुक्तक : 470 - जी करता है अपने सर से


जी करता है अपने सर से पटक गिराऊँ मैं !
अपने हलकेपन का कब तक बोझ उठाऊँ मैं ?
ख़ूब रहा गुमनाम कभी बदनाम भी बहुत हुआ ,
अब सोचूँ कुछ यादगार कर नाम कमाऊँ मैं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 469 - क्या सोच के ये गबरू


क्या सोच के ये गबरू-गबरू नौजवाँ करें ?
होशियार से होशियार भी नादानियाँ करें ॥
दोनों तरफ़ लगी हो आग कब ये देखते ?
इकतरफ़ा इश्क़ में भी क़ुर्बाँ अपनी जाँ करें ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, February 6, 2014

मुक्तक : 468 - पहले भी थे पर इतने


पहले भी थे पर इतने नहीं थे तब आदमी ॥
मतलब परस्त जितने हुए हैं अब आदमी ॥
इक दौर था ग़ैरों पे भी देते थे लोग जाँ ,
अब जाने फिर से वैसे ही होंगे कब आदमी ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, February 5, 2014

मुक्तक : 467 - कोई हमराह नहीं


कोई हमराह नहीं कोई क़ाफ़िला न रहा ॥
मिलने-जुलने का कहीं कोई सिलसिला न रहा ॥
फिर भी हैरत है मुझे ऐसी बदनसीबी से ,
कोई ख़फ़गी न रही कोई भी गिला न रहा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 466 - न सुनहरा स्वप्न बुनती


ना सुनहरा स्वप्न बुनती ना व्यथित होती ।।
न निरंतर जागती न अनवरत सोती ।।
आग मन की अश्रु जल से यदि बुझा करती ,
देखती कम आँख निःसंदेह बस रोती ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, February 4, 2014

मुक्तक : 465 - अंदर थार मरुस्थल


अंदर थार मरुस्थल बाहर हिन्द महासागर सा तृप्त ।।
सूट-बूट में लगता ज्ञानी-चतुर-चपल पर है विक्षिप्त ।।
कितने अवसर पुण्य कमाने के मिलते हैं किन्तु तुरन्त-
लाभ हेतु रहता मानव प्रायः लघु-महा पाप संलिप्त ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, February 2, 2014

मुक्तक : 464 - उसको आँखों को भूल


उसको आँखों को भूल याद न होने दूँगा ॥
दिल में इक लम्हा भी आबाद न होने दूँगा ॥
चाहना उसको यानी उसको लुत्फ़ पहुँचाना ,
अपने दुश्मन को कभी शाद न होने दूँगा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...