Thursday, July 27, 2017

*मुक्त-मुक्तक : 873 - कच्ची मिट्टी



गलता बारिश में कच्ची मिट्टी वाला ढेला हूँ ॥
नेस्तोनाबूद शह्र हूँ मैं उजड़ा मेला हूँ ॥
देख आँखों से अपनी आके मेरी हालत को ,
तेरे जाने के बाद किस क़दर अकेला हूँ ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, July 22, 2017

खुल के अफ़वाहों का बाज़ार गर्म करता है



खुल के अफ़वाहों का बाज़ार गर्म करता है ॥
सच के कहने को तू सौ बार शर्म करता है !!
जब तू बाशिंदा है घनघोर बियाबानों का ॥
क्यों तू मालिक है शहर में कई मकानों का ?
तुझसे सीखे कोई सौदागरी का फ़न आकर ॥
आईने बेचे तू अंधों के शहर में जाकर !!
दिल तिजोरी में करके बंद अपना बिन खो के ॥
इश्क़ करता तू यों सर्पों से नेवला हो के !!
लोमड़ी आके तेरे द्वार पे भरती पानी ॥
तेरा चालाकियों में दूसरा कहाँ सानी ?
तुझसा जीने का हुनर किसने आज तक जाना ?
मैंने उस्ताद अपना तुझको आज से माना ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, July 13, 2017

ग़ज़ल : 238 - द्रोपदी न समझो ॥



बारिश में बहते नालों ख़ुद को नदी न समझो ।।
लम्हा तलक नहीं तुम ख़ुद को सदी न समझो ।।1।।
अच्छे के वास्ते गर हो जाए कुछ बुरा भी ,
बेहतर है उस ख़राबी को फिर बदी न समझो ।।2।।
दिखने में मुझसा अहमक़ बेशक़ नहीं मिलेगा ,
लेकिन दिमाग़ से मुझ को गावदी न समझो ।।3।।
पौधा हूँ मैं धतूरे का भूलकर भी मुझको ,
अंगूर गुच्छ वाली लतिका लदी न समझो ।।4।।
जिसको वरूँगी मेरा पति बस वही रहेगा ,
सीता हूँ मैं मुझे तुम वह द्रोपदी न समझो ।।5।।
(बदी = पाप , अहमक़ = भोंदू , गावदी = बेवकूफ़ )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, July 10, 2017

ग़ज़ल : 237 - दोपहर में रात



एक घटिया टाट से उम्दा वो मलमल हो गए ।।
हंस से हम हादसों में पड़के गलगल हो गए ।।1।।
हो गए शीतल सरोवर बूँद से वो और हम ,
रिसते - रिसते टप - टपकते तप्त मरुथल हो गए ।।2।।
शेर की थे गर्जना , सागर की हम हुंकार थे ,
आजकल कोयल कुहुक , नदिया की कलकल हो गए ।।3।।
पार लोगों को लगाने कल तलक बहते थे जो ,
अब धँसाकर मारने वाला वो दलदल हो गए ।।4।।
सच ; जो दिल की खलबली का अम्न थे , आराम थे ,
धीरे - धीरे अब वही कोहराम हलचल हो गए ।।5।।
इक ज़रा सी भूल से हम उनके दिल से हाय रे ,
दोपहर में रात के तारों से ओझल हो गए ।।6।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, July 8, 2017

ग़ज़ल : 236 - हिरनी जैसी आँखें



एक नहीं , दो भी छोड़ो झुण्डों के झुण्डों की ।।
मेरे चूहे निगरानी करते हैं शेरों की ।।1।।
जिनको आँखें रखकर भी कुछ सूझ नहीं पड़ता ,
मैं उनसे ज़्यादा इज़्ज़त करता हूँ अंधों की ।।2।।
तुम उनको बातों से अब समझाना बंद करो ,
सख़्त ज़रूरत है उनको घूँसों की लातों की ।।3।।
मुफ़्लिस का दीनो-ईमान न कुछ क़ीमत रखता ,
इस दुनिया में बात है तो बस दौलत वालों की 4।।
सब पाकर भी रहती अंधों बहरों की ख़्वाहिश ,
हिरनी जैसी आँखें , हाथी जैसे कानों की ।।5।।
ऊँची-ऊँची डिग्री रखती हैं जो साथ अपने ,
अक़्सर कम सुनतीं वो बहुएँ अनपढ़ सासों की ।।6।।
लाख तिजोरी ख़ाली हो पर फिर भी होती है ,
उसको सख़्त ज़रूरत मोटे पक्के तालों की ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, July 3, 2017

*मुक्त-मुक्तक : 872 - इक भूल.........



उनकी सब हरकतें यों थीं बेजा मगर ,
हम उन्हे हँस के माक़ूल कहते रहे ॥
बंद कर आँखें उनके गुनाहों को भी ,
छोटे बच्चों सी इक भूल कहते रहे ॥
उनके कंकड़ को नग ;
मक्खी मच्छर को खग ;
उनकी ख़स को शजर ;
धूल - मिट्टी को ज़र ;
उनको रखना था ख़ुश इसलिए झूठ ही ,
उनके काँटों को भी फूल कहते रहे ॥
(हरकत=चाल ,बेजा=अनुचित ,माक़ूल=उचित ,नग=रत्न ,खग=पक्षी , ख़स=सूखी घास ,शजर=वृक्ष ,ज़र=स्वर्ण )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, July 2, 2017

मुक्त-ग़ज़ल : 235 - जब तक कि मैं न आऊँ



मुट्ठी में बारिशों का सब आब रोक लेना ॥
आँखों में आँसुओं का सैलाब रोक लेना ॥
जब तक कि मैं न आऊँ तुम रात में अँधेरी ,
सूरज को मात देता महताब रोक लेना ॥
हर चीज़ छिनने देना याँ तक कि मेरी जाँ भी ,
लुटने से सिर्फ़ दिल का असबाब रोक लेना ॥
जब मुझको अंधा करने आओ तो है गुज़ारिश ,
आँखों से गिरते मेरी कुछ ख़्वाब रोक लेना ॥
जब मैं रहूँ न ज़िंदा और मेरी याद आए ,
पीने से ख़ुद को दारू-जह्राब रोक लेना ॥
पर्दानशीं हूँ फिर भी ऐ काँच के मुहाफ़िज़ ,
मुझ पर हवस के फिंकते तेज़ाब रोक लेना ॥
( आब =पानी, महताब =चाँद, असबाब =सामान, जह्राब =विषजल, मुहाफ़िज़ =रक्षक )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...