Monday, June 30, 2014

137 : ग़ज़ल - अंधे ने जैसे साँप को


अंधे ने जैसे साँप को रस्सी समझ लिया ।।
चश्मिश ने एक बुढ़िया को लड़की समझ लिया ।।1।।
धागा पिरो दिया था सुई में क्या इक दफ़्आ ,
लोगों ने मुझको ज़ात का दर्ज़ी समझ लिया ।।2।।
जानूँ न किस अदा से था मैं बोझ ढो रहा ,
पेशे से सबने मुझको क़ुली ही समझ लिया ।।3।।
झाड़ू लगाते देख के अपने ही घर मुझे ,
पूरे नगर-निगम ने ही भंगी समझ लिया ।।4।।
नाले में धो रहा था मैं इक बार चादरें ,
यारों ने अस्पताल का धोबी समझ लिया ।।5।।
पीने से दारू रोक दिया था कभी उसे ,
उसने तो मुझको जन्म का बैरी समझ लिया ।।6।।
वीराने में जवान बहन-भाई देखकर ,
बहुतों ने उनको प्रेमिका-प्रेमी समझ लिया ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, June 29, 2014

मुक्तक : 561 - बज़्म में मस्जिद में या


बज़्म में मस्जिद में या फिर मैक़दा आया ॥
दोस्तों को साथ ले या अलहदा आया ॥
जाने क्यों लेकिन हमेशा वो ख़ुशी में भी ,
साफ़ नमदीदा बड़ा ही ग़मज़दा आया ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 560 - लाखों मातम में भी


लाखों मातम में भी जिगर जो न बिलख रोएँ ॥
जिस्म तोला हजारों रत्ती सर टनों ढोएँ ॥
देख हैराँ न हो यहाँ बगल में फूलों के ,
सैकड़ों नोक पे काँटों की मुस्कुरा सोएँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, June 28, 2014

मुक्तक : 559 - यों बुलायी अपने हाथों


यों बुलायी अपने हाथों सबकी शामत ॥
बिल्लियों की देख चूहों से मोहब्बत ॥
अहमक़ों ने शेर के हाथों में अपने,
भेड़ ,बकरों ,हिरनों की दे दी हिफाज़त ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

136 : ग़ज़ल - लापता गुमनाम हूँ


लापता-गुमनाम हूँ ।।
इस क़दर मैं आम हूँ ।।
प्यास से लबरेज़ मैं ,
और उनका जाम हूँ ।।
चाय से परहेज़ , यूँ
दार्जिलिंग-आसाम हूँ ।।
गर्मियों में खौलती ,
भेड़ों का हज्जाम हूँ ।।
जिस्म में मछली के इक ,
चकवा तश्नाकाम हूँ ।।
अहमक़ औ' नादान मैं ,
इल्म का अंजाम हूँ ।।
बिन दरो-दीवार का ,
आस्माँ सा बाम हूँ ।।
नाँ हूँ सुब्हे-ज़िंदगी ,
नाँ अजल की शाम हूँ ।।
दुश्मनों का दर्देसर ,
यारों को आराम हूँ ।।
 एक मानव धर्म बस ,
हिंदू नाँ इस्लाम हूँ ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, June 27, 2014

मुक्तक : 558 - बिना पर बाज से बेहतर


बिना पर बाज से बेहतर परिंदा मानने वालों ॥
मरे होकर हमेशा तक को ज़िंदा मानने वालों ॥
नहीं क्यों शर्म करते आख़री होकर करोड़ों में ,
हमेशा ख़ुद को दुनिया में चुनिंदा मानने वालों ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, June 26, 2014

मुक्तक : 557 - अपने ही दफ्न को


अपने ही दफ्न को मरघट आए हुए ॥
ख़ुद का काँधों पे मुर्दा उठाए हुए ॥
देखिए बेबसी ये हमारी कि हम ,
खिलखिलाते हैं आँसू छिपाए हुए ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 556 - न पोर्च न बरामदा


न पोर्च न बरामदा न लान दोस्तों ॥
हरगिज़ न देखने में आलीशान दोस्तों ॥
जन्नत से कम नहीं मगर है मेरे वास्ते ,
घर मेरा बस दो कमरों का मकान दोस्तों ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, June 25, 2014

मुक्तक : 555 - हुस्न की अब क्या तेरे


हुस्न की अब क्या तेरे तारीफ़ में कहना ?
लेक जब लब आ गई ख़ामोश क्यों रहना ?
तेरे आगे मुफ़्त मिट्टी के सभी ढेले ,
तू खरे सोने का वज़्नी क़ीमती गहना ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 554 - मंदिरों में मस्जिदों में रूहो



मंदिरों में मस्जिदों में रूहो - दिल में जो ख़ुदा ॥
एक ही सब शक्लों में है ईश हो या वो ख़ुदा ॥
एक दिन हो जाएँगे ऐसे तो लाखों दोस्तों ,
कितना भी अच्छा हो इंसाँ उसको मत बोलो ख़ुदा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, June 24, 2014

मुक्तक : 553 - क्या मस्त मैंने उसकी


क्या मस्त मैंने उसकी निगाहों को था पिया  ?
उसने भी हाथों हाथ मेरा दीद ले लिया ।।
उठ ही रहा था दोनों तरफ से गरम धुआँ ,
जलने से पहले दुनिया ने हमको बुझा दिया ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 552 - समुंदरों से कम की


समुंदरों से कम की ये न थाह लेता है ॥
हुजूमे ग़म जहाँ हो दिल पनाह लेता है ॥
इसे है शौक़ जैसे काँटो पे ही सोने का ,
कभी न नींद को ये ख़्वाबगाह लेता है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, June 22, 2014

मुक्तक : 551 - अपने हुनर-ओ-फ़न का


अपने हुनर-ओ-फ़न का पूरा करके इस्तेमाल ॥
उसने दिखाया हमको इक बहुत बड़ा क़माल ॥
कल तक वो पैसे-पैसे का मोहताज, नामचीन
बन बैठा आज रातों रात अमीर मालामाल ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, June 21, 2014

मुक्तक : 550 - पोखर के गंदे पानी को


पोखर के गंदे पानी को कह डाल गंगा-जल ॥
खुर जैसे पंजों को भी तू कह ले चरण-कमल ॥
पर चापलूस ये तो ख़ुशामद की हद ही है ,
मतलब को तू गधे से करे बाप को बदल !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, June 20, 2014

मुक्तक : 549 - जो भी थे मुझमें छिन गए


जो भी थे मुझमें छिन गए वो सब हुनर कमाल ॥ 
जितना था तेज़गाम उतना अब हूँ मंद चाल ॥ 
कितना कहा था सबने इश्क़ से रहूँ मैं दूर ,
अपने ही हाथों कर ली अपनी ज़िंदगी मुहाल ॥ 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 548 - शाह होकर चोर की



शाह होकर चोर की मानिंद क्यों छुप-छुप रहे ?
चहचहाए क्यों नहीं रख कर ज़ुबाँ चुप-चुप रहे ?
राज़ क्या है जबकि अपने आप में इक नूर तुम _
क्यों तुम अपनी तह में क़ायम रख अँधेरा धुप रहे ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, June 19, 2014

मुक्तक : 547 - तक्लीफ़ पे तक्लीफ़


तक्लीफ़ पे तक्लीफ़ दर्द-दर्द पे दिया ॥
जो भी दिया था तुमने हाथों हाथ उसे लिया ॥
तुम जैसा न शौक़ीन-ए-ग़म कि दिल ही दिल में रो ,
हँस-हँस के सितम झेले सब कभी न उफ़ किया ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, June 18, 2014

मुक्तक : 546 - उसके अंदर में क्या


उसके अंदर में क्या मंज़र दिखाई देता है ?
बिखरे कमरे से सिमटा घर दिखाई देता है ॥
जबसे सीखी है बिना शर्त परस्तिश उसने ,
बंदा बेहतर से भी बेहतर दिखाई देता है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 545 - जितना कहते हैं वो


जितना कहते हैं वो उतना कभी नहीं करते ॥
और जिस वक़्त पे कहते तभी नहीं करते ॥ 
आज का काम कल पे टालने के आदी हैं ,
कुछ भी अब का वो भूले भी अभी नहीं करते ॥ 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, June 17, 2014

मुक्तक : 544 - डर के साये में कुछ


डर के साये में कुछ इस तरह बसर होती है ॥
लब उठाए हँसी तो आँख अश्क़ ढोती है ॥
दिल तो रहता है उनींदा ही उबासी लेता ,
अक़्ल भी बेच-बेच कर के घोड़े सोती है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, June 16, 2014

मुक्तक : 543 - पीते हैं वो तो कहते हैं


पीते हैं वो तो कहते हैं करते हैं ग़म ग़लत ॥
हम छू भी लें तो बोलेंगे करते हैं हम ग़लत ॥
हालात उनसे इस क़दर ख़राब हैं अपने ,
हमको तो ये लगता है कि चलता है दम ग़लत ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, June 15, 2014

मुक्तक : 542 - उजड़े इक गाँव से वो


उजड़े इक गाँव से वो मुख्य नगर बन बैठा ॥
ढीला अंडा था परिंदा-ए-ज़बर बन बैठा ॥
बिलकुल उम्मीद नहीं जिसके थी पनपने की ,
देखते-देखते वो पौधा शजर बन बैठा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 541 - सच कहा लेकिन अधूरा


सच कहा लेकिन अधूरा चाहे जिसने कह दिया ॥
कितने-कितने,इसने-उसने,जिसने-तिसने कह दिया ॥
और भी हैं ढेरों ज़िम्मेदारियाँ इससे अहम ,
है जवानी इश्क़ को ही तुझसे किसने कह दिया ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, June 14, 2014

मुक्तक : 540 - क़ुदरत ने तो बख़्शा था



क़ुदरत ने तो बख़्शा था हुस्न ख़ूब-लाजवाब ॥
जंगल घने थे झीलें लबालब नदी पुरआब ॥  
किसने ज़मीन उजाड़ी है पेड़ों को काट-काट ?
हम ही ने सूरत इसकी बिगाड़ी है की ख़राब ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, June 13, 2014

135 : ग़ज़ल - यूँ ही सा देखने में है


यूँ ही सा देखने में है वो छोटा सा बड़ा इंसाँ ॥
सभी को बैठने कहता है ख़ुद रहकर खड़ा इंसाँ ॥
जहाँ सब लोग उखड़ जाते हैं पत्ते-डाल से , जड़ से ,
वो टस से मस नहीं होता पहाड़ों सा अड़ा इंसाँ ॥
वो अंदर से है मक्खन से मुलायम आज़मा लेना ,
यों दिखता है वो ऊपर नारियल जैसा कड़ा इंसाँ ॥
नहीं मिलता कहीं दो घूँट जब पानी मरुस्थल में ,
वहाँ ले आ पहुँचता है वो पानी का घड़ा इंसाँ ॥
जो सोता बेचकर घोड़े वो उठ जाता है बाँगों से ,
नहीं उठता है आँखें खोलकर लेटा , पड़ा इंसाँ ॥
यों जुड़ता है किसी से जैसे उसका ही वो टुकड़ा हो ,
क़रीने से अँगूठी में नगीने सा जड़ा इंसाँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, June 9, 2014

मुक्तक : 539 - रफ़्ता-रफ़्ता तेज़ से भी


रफ़्ता-रफ़्ता तेज़ से भी तेज़ चलती जा रही ॥
गर्मियों के बर्फ़ की मानिंद गलती जा रही ॥
सदियाँ लाज़िम हैं हमें और पास हैं बस चंद दिन ,
भर जवानी फ़िक्र में इस उम्र ढलती जा रही ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, June 8, 2014

134 : ग़ज़ल - यह यक़ीं मुझको भी आख़िरकार



यह यक़ीं मुझको भी आख़िरकार करना ही पड़ा ॥
इस ज़माने में नहीं है मालोज़र से कुछ बड़ा ॥
क़ीमतों की बात है सब कुछ बिकाऊ है यहाँ ,
जिस्म भी और प्यार भी ,क्या दीन औ' ईमान क्या ?
फ़र्ज़ रखकर ताक पर सब हक़ की बातें कर रहे ,
जिसको देखो उसको चस्का मुफ़्तखोरी का लगा ॥
कामयाबी और बरबादी का अपना राज़ है ,
है कहीं कोशिश कहीं क़िस्मत का भी कुछ मामला ॥
अपनी वहशत,ज़ालिमाना हरकतों से सच कहूँ ,
आदमी के सामने शैतान भी फ़ीका पड़ा ॥
इस तरह भी कुछ न कुछ बिजली बचत हो जायेगी ,
धूप में जलते हुए बल्बों को हम गर दें बुझा ॥
बेचते हैं  जो शराब औ'शौक़ से पीते भी हैं  ,
रखते हैं वो भी ख़िताब इस शहर में नासेह का ॥
इल्तिजा से बन्दगी से जब न कुछ हासिल हुआ ,
पहले सब कुछ था ख़ुदा अब कुछ नहीं उसका ख़ुदा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, June 7, 2014

मुक्तक : 538 - ऐसा करूँ धमाल


ऐसा करूँ धमाल-धूम सालगिरह पे ॥
ऐसा दिखाऊँ रक़्स झूम सालगिरह पे ॥
इतना हूँ ख़ुश कि आज तो जी है अदू के भी ,
जाकर के लिपट जाऊँ चूम सालगिरह पे ॥
( अदू = शत्रु , दुश्मन )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक 537 - ताउम्र कराहों की न


ताउम्र कराहों की न आहों की सज़ा दो ॥
मत एक भूल पर सौ गुनाहों की सज़ा दो ॥
जूतों को छीन-फाड़ दो टाँगें तो न काटो ,
चाहो तो बबूलों भरी राहों की सज़ा दो ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, June 6, 2014

मुक्तक : 536 - मत कह बबूल मुझको



मत कह बबूल मुझको छोटा हूँ बेर से भी ॥
झूठा हूँ बालकों सा लेकिन नहीं फ़रेबी ॥
खंभों की तरह माना सीधा नहीं हूँ लेकिन ,
मत कर मुनादी मैं हूँ टेढ़ा हो ज्यों जलेबी ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, June 5, 2014

मुक्तक : 535 - मुंबई , कलकत्ता , देहरादून



मुंबई , कलकत्ता देहरादून में आँसू ॥
बारिशों में सर्दियों मई-जून में आँसू ॥
तेरी यादों ने मुझे कुछ यूँ रुलाया है ,
मिल गये मेरे पसीने ख़ून में आँसू ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, June 3, 2014

मुक्तक : 534 - लिपटे-उलझे बल ऊँचे


लिपटे-उलझे बल ऊँचे माथ छोड़ चल देती ॥ 
कसके पकड़ा झटक के हाथ छोड़ चल देती ॥ 
ज़िंदगी तुझसा और बेवफ़ा भी होगा क्या ?
जब हो मर्ज़ी तेरी तू साथ छोड़ चल देती ॥ 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 533 - ठंडे बुझे पलीतों को


( चित्र Google Search से साभार )

ठंडे बुझे पलीतों को गाज़ बनते देखा ॥
कल तक तो चंद बहुतों को आज बनते देखा ॥
दुनिया में अब बचा क्या है कुछ भी ग़ैरमुमकिन  ?
जूता घिसा-फटा भी सरताज बनते देखा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, June 2, 2014

133 : ग़ज़ल - करवट बदल-बदल के


करवट बदल-बदल के मैंने उनकी की ख़बर ।।
सब रात जाग-जाग कर ही आज की बसर ।।1।।
ख़ुद की ख़बर न उसको जो रखे ज़ुबान पर ,
सब शह्र , हर गली की , कूचे-कूचे की ख़बर !!2!!
माँगे बग़ैर उसने क्या नहीं किया अता ,
चाही गई कभी न चीज़ नज़्र की मगर !!3!!
बस जन्नतों की , दोज़ख़ों की , आस्मान की ,
करते हैं फ़िक्र रात-दिन वो रह ज़मीन पर !!4!!
शैतानों को तो बाहरी भी पूज वो रहा ,
घर के फ़रिश्तों की भी कर रहा न क़द्र पर !!5!!
जैसे कि टल गई हो उसके सर से हर बला ,
मरने का मेरे उसने यों मनाया जश्न घर !!6!!
उसको मेरी ज़रूरतोंं की भी न फ़िक्र कुछ ,
पूरी की मैं ने जिसकी हर तमन्ना उम्र भर !!7!!
जा-जा के दुनिया भर का पूछे हाल-चाल वो ,
पुर्सिश को मेरी भूलकर न आए वो इधर !!8!!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...