Saturday, June 14, 2014

मुक्तक : 540 - क़ुदरत ने तो बख़्शा था



क़ुदरत ने तो बख़्शा था हुस्न ख़ूब-लाजवाब ॥
जंगल घने थे झीलें लबालब नदी पुरआब ॥  
किसने ज़मीन उजाड़ी है पेड़ों को काट-काट ?
हम ही ने सूरत इसकी बिगाड़ी है की ख़राब ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

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मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...