Thursday, May 28, 2015

मुक्तक : 721 - क़ाफ़िला-दर-क़ाफ़िला ॥


रंगीं-महफ़िल , लाव-लश्कर , क़ाफ़िला-दर-क़ाफ़िला ॥
इसमें क्या शक़ मैंने जो चाहा मुझे अक्सर मिला ॥
फिर भी मेरी अपनी भरसक कोशिशों का तो नहीं ,
मुझको लगता है कि बस क़िस्मत का ही है यह सिला ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, May 27, 2015

मुक्तक : 720 - रीते पड़े यहाँ मन ॥


जाने कितनी ही भर्तियाँ होती हैं सन-दर-सन ?
भाँति-भाँति की रिक्तियों के होते विज्ञापन ।।
क्यों किसी का भी ध्यान जाता ही नहीं इस ओर ?
जाने कबसे तो , कितने ही रीते पड़े याँ मन ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 719 - आँच से अंगार


धैर्य - करि , बन मत्त दादुर-दल उछल बैठे ॥
स्निग्ध-पथ पर नोक-डग कल चल फिसल बैठे ॥
बिन छुए तुझको तेरी बस आँच से अंगार ,
कितने लोहे मोम-सदृश गल-पिघल बैठे ॥
( धैर्य-करि=संयम के हाथी,मत्त=मतवाला,दादुर-दल=मेंढक समूह,स्निग्ध-पथ=चिकनी राह ,नोक-डग=नुकीले क़दम )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, May 26, 2015

164 : ग़ज़ल - जी रहा हूँ ॥


ज़ख़्म ख़ुद कर-कर उन्हे ख़ुद सी रहा हूँ  ।।
अश्क़ का दर्या बहा फिर पी रहा हूँ ।।1।।
कुछ न पूछो हो गया क्यों छाछ से बद ?
मैं जो उम्दा से भी उम्दा घी रहा हूँ ।।2।।
उनकी नज़रों में कभी इक वक़्त था जब ,
मैं ख़ुदा से भी कहीं आली रहा हूँ ।।3।।
मुझको मत बतलाओ वह कैसी जगह है ?
तुम जहाँ पर हो कभी मैं भी रहा हूँ ।।4।।
ज़िंदगी अपनी न अब वो रह गए हैं ,
इसलिए तो उनके बिन भी जी रहा हूँ ।।5।।
वो जहाँ भी हैं ज़मीं या आस्माँ पर ,
लेकिन उनका रहनुमा मैं ही रहा हूँ ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, May 25, 2015

गीत : 36 - जीवन - चाय...........




बहुत बेस्वाद , केवल गर्म पानी और अति फीकी ॥
लगा होंठ अपने मेरी कर दो जीवन-चाय तुम मीठी ॥
रहे तुम भी अछूते औ हृदय मेरा रहा रीता ।
समय दोनों का जो एकांत के सान्निध्य में बीता ।
कि अब जब आ गए मेले में तो मेरे निवेदन की -
करो स्वीकार पहली और अंतिम प्रेम की चीठी ॥
पहाड़ों से खड़े पैरों को गति औ लास्य मिल जाए ।
निरंतर चुप पड़े होठों को स्वर औ हास्य मिल जाए ।
तुम्हारे हाथ में है , हाथ मेरा थाम लो यदि तुम –
कि मुझ अंधे को मिल जाएगा कोई लक्ष्य या वीथी ॥
( चीठी=पत्र लास्य=नृत्य ,वीथी=मार्ग )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, May 24, 2015

मुक्तक : 718 - बेसबब ही


निगाहों में लिए फिरते हैं उसकी शक़्ल यारों ।।
नहीं करती हमारी काम कुछ भी अक़्ल यारों ।।
किया जिस दिन से उसने बेसबब ही हमको अपने -
पकड़ के दिल में कुछ दिन रख के फिर बेदख़्ल यारों ।।
- डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, May 23, 2015

मुक्तक : 717 - कतरन ही तो माँगी थी


इक कतरन ही तो माँगी थी पूरा थान नहीं ।।
चाही थी बस एक कली सब पुष्पोद्यान नहीं ।।
पर तुम इक जीरा भी भूखे ऊँट को दे न सके ,
तुमसा कँगला हो सकता दूजा धनवान नहीं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, May 22, 2015

मुक्तक : 716 - बिना पिए ही चढ़ी


बग़ैर ज़ीना बलंदी , गले लगा चूमी !!
गली हर एक चले बिन , ही जन्नती घूमी !!
वो आके बैठ गए क्या , ज़रा सा पहलू में ,
बिना पिए ही चढ़ी , ज़िंदगी नची-झूमी !!
( ज़ीना=सीढ़ी ,बलंदी=ऊँचाई ,जन्नती=स्वर्ग की ,पहलू=गोद )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, May 21, 2015

मुक्तक : 715 - पाँवों की ज़िद में ज़िंदगी


पिघली भी होके साँचे में ढाले नहीं ढली !!
लकड़ी यों तर-ब-तर थी कि जाले नहीं जली !!
आँखें थीं , नाक-कान थे थे हाथ भी मगर
पाँवों की ज़िद में ज़िंदगी चाले नहीं चली !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, May 20, 2015

163 : ग़ज़ल - काँव-काँव अपने ॥


लगते हैं सबको अच्छे कैसे हों ठाँव अपने ?
प्यारे बुरे भी हों तो ,लगते हैं गाँव अपने ।।1।।
मंज़िल अगर नहीं हो तो आज ही बना लो ,
या आज ही कटाकर रख डालो पाँव अपने ।।2।।
जबसे दिया है उसके हाथों में हमने सूरज ,
तब से उसी के बस में हैं धूप-छाँव अपने ।।3।।
कोयल को ही इजाज़त है याँ पे बोलने की ,
चुपवाओ , करते कौए तुम काँव-काँव अपने ।।4।।
जब जीतते नहीं तो क्यों खेलते जुआ हो ?
क्या हारने लगाते हर बार दाँव अपने ?5।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, May 19, 2015

मुक्तक : 714 - कच्ची मदी हूँ ॥


ओस कण दिखता हूँ पर बहती नदी हूँ ॥
रूप से अंगूर सच कच्ची मदी हूँ ॥
दृष्टिकोण अपना बदल लो पाओगे फिर ,
एक छोटा पल नहीं मैं इक सदी हूँ ॥
( मदी = शराब )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, May 17, 2015

मुक्तक : 713 - मियादी सी आशिक़ी


मुझपे पहले ही ये बात उसने साफ़ कर दी थी ॥
ख़ास शर्तों पे मियादी सी आशिक़ी की थी ॥
ग़म नहीं आज अगर ग़ैर वो हुआ , उसने –
उम्र भर मेरा ही रहने की कब क़सम ली थी ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 712 - बल्ब के काँच से पतले


नाम ठोकर का भी ले दो तो टूट जाते हैं ॥
बल्ब के काँच से पतले वो फूट जाते हैं ॥
जब भी मिलते हैं किया करते बात मरने की ,
और दे दो जो इजाज़त तो रूठ जाते हैं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Saturday, May 16, 2015

मुक्तक : 711 - जुगनू हज़ार दो ॥


टिम-टिम चिराग़ एक या जुगनूँ हज़ार दो ॥
हंसों सा दो प्रकाश कि पिक-अंधकार दो ॥
वाबस्ता जो नज़र से वो किस काम का मेरे ?
अंधा हूँ मैं मुझे क्या ? दो शब या नहार दो ॥
( वाबस्ता=सम्बद्ध  / नहार=प्रभात )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, May 15, 2015

मुक्तक : 710 - जन्मा इक किन्नर ने बच्चा !


जो गप्पी लोगों को देता फिरता गच्चा ॥
कैसे मानलूँ है इस बार वो सचमुच सच्चा ?
ढोल जो पीट मुनादी करता फाड़ गले को ,
हट्टा-कट्टा जन्मा रे किन्नर ने बच्चा !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, May 14, 2015

मुक्तक : 709 - कैसा मैं परिंदा था ?



जाने कितनों में मैं अजीब औ' चुनिंदा था ?
उम्र भर फड़फड़ा घिसट-घिसट भी ज़िंदा था॥
तोड़ पिंजरा सका न चल सका न , उड़ पाया ;
पैर थे , पर थे , हाय ! कैसा मैं परिंदा था ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Thursday, May 7, 2015

मुक्तक : 708 - बस मोहब्बत ही करूँ ॥


ना कहीं चुगली तेरी ना तो शिकायत ही करूँ ॥
मारना चाहूँ मगर पूरी हिफ़ाज़त ही करूँ ॥
क़ाबिले नफ़्रत है तू लेकिन कहूँ कैसे मेरी ,
बेबसी ऐसी है तुझको बस मोहब्बत ही करूँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, May 6, 2015

मुक्तक : 707 - बाज का भी बाप ॥


जिस्म से ले रूह तक की , की है हमने माप सच ॥
आदमी क्या हो बताएँगे हमें क्या आप सच ?
दिखने में गौरैया ,मैना ,फ़ाख़्ता ,बुलबुल  ,
अस्ल में है गिद्ध ,चील औ’ बाज़ का भी बाप ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, May 4, 2015

मुक्तक : 706 ( B ) - नुकीले-नुकीले ये काँटे


कोई करके न तरफ़दारियाँ है ये बाँटे ।।
कोई अपने ही न हाथों से ख़ुद है ये छाँटे ।।
ख़ुद-ब-ख़ुद ही ये गिरें आके नर्म-दामन में ,
बदनसीबी से नुकीले-नुकीले ये काँटे ।।
( तरफ़दारियाँ=पक्षपात, छाँटना=चुनना )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, May 3, 2015

मुक्तक : 706 - क़ैद-ओ-क़फ़स


मत घोंसले को क़ैद-ओ-क़फ़स का तू नाम दे ॥
मत गुफ़्तगू को तल्ख़ बहस का तू नाम दे ॥
करता हूँ मैं जो उससे दिल-ओ-जान से रे उस ,
पाकीज़ा इश्क़ को न हवस का तू नाम दे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...