Thursday, May 28, 2015

मुक्तक : 721 - क़ाफ़िला-दर-क़ाफ़िला ॥


रंगीं-महफ़िल , लाव-लश्कर , क़ाफ़िला-दर-क़ाफ़िला ॥
इसमें क्या शक़ मैंने जो चाहा मुझे अक्सर मिला ॥
फिर भी मेरी अपनी भरसक कोशिशों का तो नहीं ,
मुझको लगता है कि बस क़िस्मत का ही है यह सिला ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

No comments:

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...