Sunday, March 31, 2013

मुक्तक : 134 - उसके दर्दे दिल की


उसके दर्दे दिल की मैं , दारू-दवा बनकर रहूँ ।।
गर्मियों की लू में सच , बादे सबा बनकर रहूँ ।।
यों मुझे देता है बस , तक़्लीफ़ पे तक़्लीफ़ वो ,
बस मेरा है इसलिए , उसका मज़ा बनकर रहूँ ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति  

Saturday, March 30, 2013

मुक्तक : 133 - मैं कब दीद के क़ाबिल



मैं कब दीद के क़ाबिल फ़िर भी तकते मुझे रहो !!
क्यों करते हो मुझे तुम इतना ज़्यादा प्यार कहो ?
मेरे रूप-रंग पर भूले भी जो पड़े नज़र ,
दुनिया करती है छिः छिः तुम वा-वा अहो-अहो !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 132 - भूखे को मत दिखाकर


भूखे को मत दिखाकर खा तू क़बाब को ।।
 मैकश हूँ सामने मत ला तू शराब को ।।
मत इम्तहाँ ले मेरे सब्र-ओ-क़रार का ,
पर्दे में रख छुपाकर अपने शबाब को ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, March 29, 2013

मुक्तक : 131 - भूख जिसकी भी



भूख जिसकी भी लगे उसको मैं खाकर के रहूँ ।।

चाहता हूँ जो उसे हर हाल पाकर के रहूँ ।।

अब इसे ज़िद कहिए , कहिए ख़ब्त या मंज़िल की धुन ,

पाँव कट जाएँ तो मैं सिर को चलाकर के रहूँ ।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति 


गीत : 4 - दिल की दिल में.......................


दिल की दिल में न रख ज़ुबाँ पर लाइए ॥
प्यार करते हों तो प्यार जतलाइए ॥
दिल की दिल................................
चोरी चोरी उन्हें कब तलक देखिए ,
हाले दिल की ख़बर ख़त में लिख भेजिए ,
यूँ न शर्माइए , यूँ न घबराइए ॥
प्यार करते हों तो प्यार जतलाइए ॥
प्यार ख़ुशबू है वो जो कि छिपता नहीं ,
जाने क्या बात है उनको दिखता नहीं ,
जाइए जाइए उनको दिखलाइए ॥
प्यार करते हों तो प्यार जतलाइए ॥
दिल से दिल को सुना राह होती यहाँ ,
अब जमाने मगर रह गए वो कहाँ ,
बात दिल आँख की उनको समझाइए ॥
प्यार करते हों तो प्यार जतलाइए ॥
वक़्त ऐसा न हो बीत जाए ये कल ,
फ़िर कभी ज़िंदगी में न आए ये पल ,
वक़्त पर उनके दिल में उतर जाइए ॥
प्यार करते हों तो प्यार जतलाइए ॥
दिल की दिल................................
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

गीत : 3 - इश्क़ करता हूँ.....................


इश्क़ करता हूँ मैं , प्यार करता हूँ मैं ॥
उनसे कैसे कहूँ उनपे मरता हूँ मैं ?
इश्क़ करता......................................
खिलते चेहरे से कुछ भी पता न चले ,
दर्दे दिल कोई कैसे मेरा जानले ?
अपने यारों से भी कुछ न कहता हूँ मैं ॥
उनसे कैसे कहूँ उनपे मरता हूँ मैं ?
मेरी तन्हाइयों में गुजर देखिये ,
इश्क़ का मुझपे तारी असर देखिये ,
आतिशे हिज़्र में धू धू जलता हूँ मैं ॥  
उनसे कैसे कहूँ उनपे मरता हूँ मैं ?
मेरे दिल की उन्हें कैसे होगी ख़बर ,
मेरा क़ासिद यहाँ कोई होता अगर ,
प्यार की चिट्ठियाँ रोज़ लिखता हूँ मैं ॥
उनसे कैसे कहूँ उनपे मरता हूँ मैं ?
इश्क़ करता हूँ मैं , प्यार करता हूँ मैं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, March 28, 2013

80 : ग़ज़ल - वहाँ के धुप्प अँधेरों में



वहाँ के धुप्प अँधेरों में , भी बिजली सा उजाला है ।। 
यहाँ सूरज चमकते हैं , मगर हर सिम्त काला है ।।1।।
 
जो पाले हैं चनों ने वो , हिरन ,खरगोश ,घोड़े हैं ,
ये कछुए , केंचुए हैं जिनको बादामों ने पाला है ।।2।।
 
यहाँ हर एक औरत सिर्फ़ औरत है जनाना है ,
वहाँ दादी है ,चाची है कोई अम्मा है
ख़ाला है ।।3।।

वहाँ स्कूल ,कॉलिज ,अस्पताल और धर्मशाले हैं ,
यहाँ पग-पग पे मस्जिद ,चर्चगुरुद्वाराशिवाला है ।।4।।
 
वहाँ हर हाल में हर काम होता वक़्त पर पूरा ,
यहाँ सबने सभी का काम कल परसों पे टाला है ।।5।।

- डॉ. हीरालाल प्रजापति

प्रतीक्षा गीत : 2 - कभी डाकिया...................


कभी डाकिया जो मेरी  बनकर हवा चले ॥
तभी हाले दिल मेरा भी उनको पता चले ॥
कभी डाकिया.....................................
उनकी निगाह में यों देखा है सब मगर ,
मेरा ही ख़्वाब अब तक आया नहीं नज़र ,
कब आएगा वो जाने मेरी नज़र तले ॥
कभी डाकिया.....................................
तभी हाले दिल मेरा भी उनको पता चले ॥
मेरे ही आग अकेले दिल में लगी यहाँ ,
आँच अब तलक तो इसकी पहुँची नहीं वहाँ ,
मुझे इंतज़ार है कब वाँ पे शमा जले ॥
कभी डाकिया.....................................
तभी हाले दिल उन्हें भी मेरा पता चले ॥
मशरूफ़ियत में सब के जैसे बिताऊँ मैं ,
फ़ुरसत के पल मगर ये कैसे बिताऊँ मैं ,
दिन गर गुज़ार लूँ पर फिर शाम ना ढले ॥
कभी डाकिया.....................................
तभी हाले दिल मेरा भी उनको पता चले ॥
घुटता रहूँ मैं यूँ ही दिल की नक़ाब में ,
ऐसा न हो कहीं बस ख़्वाबों ही ख़्वाब में ,
ये सिलसिला मिलन का चलता चला चले ॥
कभी डाकिया.....................................
तभी हाले दिल मेरा भी उनको पता चले ॥
कभी डाकिया जो................................
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, March 27, 2013

प्रतीक्षा गीत : 1 - तुम मुझे मत.................


तुम मुझे मत डराओ , ये मुमकिन नहीं ; कि डरकर मैं ये रहगुज़र छोड़ दूँ ॥
जब ये पग जानकर ही उठे इस तरफ़ कैसे मंज़िल को पाये बिगर मोड़ दूँ ?
इश्क़ की सब बलाओं से वाक़िफ़ हूँ मैं , क्या सितम है जफ़ा क्या है मालूम है ,
मुझको कोई नसीहत नहीं चाहिए , प्यार क्या है वफ़ा क्या है मालूम है ,
उनकी फ़ितरत सही बेवफ़ाई मगर मैं वफ़ाओं की क्योंकर क़दर छोड़ दूँ ?
जब ये पग जानकर ही उठे इस तरफ़ कैसे मंज़िल को पाये बिगर मोड़ दूँ ?
संगदिल हों कि हों दरियादिल वो सनम , मुझको उनकी तबीअत से क्या वास्ता ?
मेरी उल्फ़त की तासीर की रंगतें उनको दिखलाएंगीं फ़िर मेरा रास्ता ,
मुझको तज्वीज़ ये टुक गवारा नहीं ; मैं कहीं और दीगर जिगर जोड़ दूँ ॥
जब ये पग जानकर ही उठे इस तरफ़ कैसे मंज़िल को पाये बिगर मोड़ दूँ ?
इश्क़ के मैं हर इक इम्तिहाँ के लिए ख़ुद को बैठी हूँ तैयार करके यहाँ ,
ये अलग बात है बख़्त दे दे दग़ा ; अब भला ज़ोर क़िस्मत पे चलता कहाँ ?
दिल शिकस्ता जो भूले न भूलूँ उन्हें ; बेबसी में हो सकता है दम तोड़ दूँ ॥
जब ये पग जानकर ही उठे इस तरफ़ कैसे मंज़िल को पाये बिगर मोड़ दूँ ?
तुम मुझे मत डराओ , ये मुमकिन नहीं ; कि डरकर मैं ये रहगुज़र छोड़ दूँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

79 : ग़ज़ल - पूरा औरों पर ही


पूरा औरों पर ही मुन्हसिर ,जीते रहने में भला है क्या ? 
जब होना ही ठीक ना हमें , आख़िर पीने से दवा है क्या ?
दिल का आलम सख़्त दर्द का , मस्ती के गाने बजाओ मत ,
सुन-सुनकर तो और भी बढ़े ,ग़म ऐसे में कम हुआ है क्या ?
सालों बीते ठीक उस तरह , का कोई इंसान दूसरा ,
बाद उसके तस्वीर के सिवा , दुनिया में फिर मिल सका है क्या ?
भलमनसत में साहुकार भी , दे देगा कुछ क़र्ज़ सूद बिन ,
पर पूछेगा पास आपके , रखने कुछ गिरवी रखा है क्या ?
अब आए हो आए क्यों न तुम , जब सब कुछ था हाथ में मेरे ,
फिर भी माँगो वैसे पास में , तुमको देने अब बचा है क्या ?
बतला तो क्योंकर हुआ है लू , के जैसा बादे सबा से तू ,
लेकिन ज्यों मैं खाक हूँ हुआ , तेरा भी यों दिल जला है क्या ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

78 : ग़ज़ल - सफ़ेदी को कौओं में


सफ़ेदी को कौओं में क्यों ढूँढता है ?
तू पागल नहीं है तो फिर और क्या है ?
है तूफ़ान भी , आँँधियाँ भी लचक जा ,
तू क्यों टूट जाने उखड़ने खड़ा है ?
तू पथराई आँखों में क्या झाँकता है ,
तेरा ख़्वाब तब भी था अब भी बसा है ॥
ये सब ऐशोआराम का साज़ोसामाँ ,
तुझे खो के लगता है बेकार का है ॥
तू फ़िर ज़ोर कितना ही अपना लगा ले ,
न नज़रों में गिर कर कोई उठ सका है ॥
हाँ करना ही होगा इलाज अब तो हीरा
कि अब सर से पानी गुजरने लगा है ॥ 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति  

77 : ग़ज़ल - सावधान होली के रंग में


सावधान होली के रंग में , 
भंग ना मिला जाए कोई रे ।।
रंग से जो चिढ़ते हैं उनको ही , 
रंग ना लगा जाए कोई रे ।।
जिसको रंग ना भाए उसको सच , 
भूल मत कभी रंग घोलिए ,
ये न हो कि भर क्रोध में किसी , 
का लहू बहा जाए कोई रे ।।
आजकल तो होली की आड़ में , 
लोग बाग बदले निकालते ,
खेलना तो पर देखभाल कर , 
बैर ना निभा जाए कोई रे ।।
घर से सर पे सौगंध चल उठा , 
कोई लाख तुझको दुहाई दे ,
भावना में भर और कर विवश , 
भंग ना पिला जाए कोई रे ।।
वय ये तेरी सुन रख रही है डग , 
देहरी पे जोबन की तो है डर ,
होरिहा न होली की ओट में , 
वक्ष से सटा जाए कोई रे ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, March 26, 2013

75 : ग़ज़ल - अपना काम तो था


अपना काम तो था समझाना ;
क्या करते माना न ज़माना ?1।।
कुछ ने माना झूठ ज़रूरी ,
बहुतों ने सच नाहक जाना ।।2।।
महलों का होकर कारीगर ,
ढूँढूँ ख़ुद को एक ठिकाना !!3!!
बस माँ ही अपने हिस्से का ,
बच्चों को दे सकती खाना ।।4।।
बेमतलब महबूब का आना ,
आते ही जो रटता जाना ।।5।।
धाक जमाने भर को घर में ,
ग़ैर ज़रूरी कुछ मत लाना ।।6।।
जान सके पढ़-पढ़ न कभी हम ,
इश्क़ में पड़कर इश्क़ को जाना ।।7।।
भीख मँगा मत पेट को पालो ,
इससे अच्छा ज़ह्र है खाना ।।8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

74 : ग़ज़ल - है राह उजाले की


है राह उजाले की क्या इसके सिवा कोई ?
मत कोस अँधेरे को जला ले दिया कोई ॥
मंज़िल की तरफ़ पूरी लगन से तू चल चला ,
इकलव्य का होता न कहीं रहनुमा कोई ॥
ख़ुश रह के ही हो सकती है बस ज़िंदगी दराज़ ,
रो-रो के न दुनिया में ज़ियादा जिया कोई ॥
हर फर्ज़ निभा क़र्ज़ चुका फ़िर जहाँ से उठ ,
लौटे न जो इक बार यहाँ से गया कोई ॥
माना कि ग़रीबों को भी मिलते दफ़ीने सच ,
होता न मगर रोज़ यही वाक़या कोई ॥
तुझको भी मोहब्बत का जो लग रोग है गया ,
तो उम्र की है ये नहीं तेरी ख़ता कोई ॥
राहों पे मुनासिब है कि आराम मत करो ,
मंज़िल पे मगर आ के भी चलता भला कोई ?
लंबी सी ख़तरनाक सी सुनसान सच की इक ,
चल के दो क़दम राह से वापस चला कोई ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, March 25, 2013

मुक्तक : 130 - गिरा नज़रों से भी


गिरा नज़रों से भी हूँ और दिल का भी निकाला हूँ ।।
यक़ीनन हूँ बुझा सूरज पिघलता बर्फ काला हूँ ।।
समझते हैं जो ऐसा आज वो कल जान जाएँगे ,
मैं तल का मैकदा हूँ या हिमालय का शिवाला हूँ ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, March 24, 2013

मुक्तक - 129 - तुझको शायद लगे



तुझको शायद लगे विचित्र या तनिक गंदा ।।
मैंने सोचा है अपना इक बड़ा अलग धंधा ।।
उसको उँगली पकड़ लगाऊँगा ठिकाने पर ,
मुझसे पूछेगा आके कोई जो पता अंधा ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 128 - यकीनन लाख झूठा


यक़ीनन लाख झूठा हो मगर सच्चा ही लगता है ।।
बड़ा हो जाये बेटा बाप को बच्चा ही लगता है ।।
किसी से भूलकर कर मत बुराई उसके बच्चे की ,
किसी का भी हो बच्चा उसको बस अच्छा ही लगता है ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 127 - जो कुछ भी था


जो कुछ था सब वो तेरी , वज़्ह दस्तयाब था ॥
नाकाम रह के भी मैं , सबसे कामयाब था ॥
दुश्मन मेरा तू क्या हुआ मैं प्यास हो गया ,
ग़ैरों की तिश्नगी को , भी जो शीरीं-आब था ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक :126 - जिससे होता था आर-पार


जिससे होता था आर-पार , वो कश्ती न रही ।।
जिसमें महफ़ूज़ रह रहा था , वो बस्ती न रही ।।
आम इंसाँ हूँ न जी पाऊँ , न मर भी मैं सकूँ ,
जह्र महँगा हुआ दवा भी , तो सस्ती न रही ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

73 : ग़ज़ल - रो-रो के अपने ग़म को


रो रो के अपने ग़म को सुनाने से फ़ायदा ?
हँसते हुओं को क्या है रुलाने से फ़ायदा ?
जिसमें न तारा चाँद न सूरज रहा कोई ,
मंजर उस आँख को क्या दिखाने से फ़ायदा ?
आराम का है काम औ' फिर वक़्त भी बहुत ,
फिर जल्दी , हाय-तौबा मचाने से फ़ायदा ?
हो जाए बिगड़ा कुछ जो मरम्मत से गर नया ,
फिर दूसरा ख़रीद के लाने से फ़ायदा ?
तेरे लिए ही तो वहाँ ताला पड़ा हुआ ,
उस दर पे घंटियों को बजाने से फ़ायदा ?
दो चार दिन में तय है अगर मर ही जाऊँगा ,
चारागरों को घर पे बुलाने से फ़ायदा ?
कॉलेज , अस्पताल , सरायें हैं लाज़मी ,
मंदिर क़दम क़दम पे बनाने से फ़ायदा ?
नुक़्साँ को ही तुम अपने अगर समझो फ़ायदा ,
फिर फ़ायदे की बात बताने से फ़ायदा ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, March 22, 2013

72 : ग़ज़ल - तुझे भूलकर भी


तुझे भूलकर भी , भुला ना सका हूँ ।।
मैं दिल से तुझे क्यों , हटा ना सका हूँ ?1।।
बहुत चाहा लेकिन , किसी भी तरह का ,
तेरा कोई भी ख़त , जला ना सका हूँ ।।2।।
नहीं बेवफ़ा पर , नहीं झूठ ये भी ,
मैं कोई भी वादा , निभा ना सका हूँ ।।3।।
मैं शर्मिंदा इतना , मेरे काम से हूँ ,
अभी भी झुका सर , उठा ना सका हूँ ।।4।।
ज़माना करे चाँद - सूरज की बातें ,
ज़मीं से मैं पीछा , छुड़ा ना सका हूँ ।।5।।
हूँ मैं ही सबब तेरे तक़्लीफ़ो-ग़म का ,
पर इल्ज़ाम ख़ुद को , लगा ना सका हूँ ।।6।।
मैं अश्कों को पीने , में माहिर नहीं बस ,
मैं सदमे से आँसू , गिरा ना सका हूँ ।।7।।
चले आओ तुम चार काँधों को लेकर ,
मैं जान अपनी अब के , बचा ना सका हूँ ।।8।।
बहुत चाहता था , जो तू चाहता था ,
मगर बन के मैं वो , दिखा ना सका हूँ ।।9।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...