Sunday, March 24, 2013

मुक्तक :126 - जिससे होता था आर-पार


जिससे होता था आर-पार , वो कश्ती न रही ।।
जिसमें महफ़ूज़ रह रहा था , वो बस्ती न रही ।।
आम इंसाँ हूँ न जी पाऊँ , न मर भी मैं सकूँ ,
जह्र महँगा हुआ दवा भी , तो सस्ती न रही ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

4 comments:

Ghanshyam kumar said...

बहुत सुन्दर...

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Ghanshyam kumar जी !

अमित विश्वास said...

बहुत सुन्‍द्रर...दिल को छूने वाली...हीरालाल जी आपसे निवेदन है कि आप अपनी रचनाऍं हमें भेजिए...'बहुवचन' पत्रिका के लिए...
मेरा पता है.
डॉ.अमित विश्‍वास
सहायक संपादक
महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा-442005 (महाराष्‍ट्र)


डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! अमित विश्वास जी ! अवश्य ही प्रेषित करूँगा ।

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...