Wednesday, March 27, 2013

79 : ग़ज़ल - पूरा औरों पर ही


पूरा औरों पर ही मुन्हसिर ,जीते रहने में भला है क्या ? 
जब होना ही ठीक ना हमें , आख़िर पीने से दवा है क्या ?
दिल का आलम सख़्त दर्द का , मस्ती के गाने बजाओ मत ,
सुन-सुनकर तो और भी बढ़े ,ग़म ऐसे में कम हुआ है क्या ?
सालों बीते ठीक उस तरह , का कोई इंसान दूसरा ,
बाद उसके तस्वीर के सिवा , दुनिया में फिर मिल सका है क्या ?
भलमनसत में साहुकार भी , दे देगा कुछ क़र्ज़ सूद बिन ,
पर पूछेगा पास आपके , रखने कुछ गिरवी रखा है क्या ?
अब आए हो आए क्यों न तुम , जब सब कुछ था हाथ में मेरे ,
फिर भी माँगो वैसे पास में , तुमको देने अब बचा है क्या ?
बतला तो क्योंकर हुआ है लू , के जैसा बादे सबा से तू ,
लेकिन ज्यों मैं खाक हूँ हुआ , तेरा भी यों दिल जला है क्या ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

2 comments:

Pratibha Verma said...

बहुत सुन्दर.....होली की शुभकामनाएं ...
पधारें कैसे खेलूं तुम बिन होली पिया...

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Pratibha Verma जी !

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...