Thursday, May 30, 2013

मुक्तक : 236 - जानता हूँ ये



( चित्र Google Search से साभार )

जानता हूँ ये कि वो निश्चित ही कुछ पथभ्रष्ट है ॥
थोड़ी उच्छृंखल है और थोड़ी बहुत वह धृष्ट है ॥
इतने सब के बाद भी उस पर मेरा पागल हृदय ,
घोर अचरज.... तीव्रता से हो रहा आकृष्ट है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, May 29, 2013

मुक्तक : 235 - जितना चाहूँ मैं



जितना चाहूँ मैं रहे चुप वो और भी बमके ॥
बर्क़े याद अब तो साफ़ आस्माँ में भी चमके ॥
रेल के तेज़ गुज़रने पे पुराने पुल सा ,
उससे मिलने को तड़प धाड़-धाड़ दिल धमके ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, May 28, 2013

मुक्तक : 234 - सँकरी गलियों को



सँकरी गलियों को गली चौड़ी सड़क को मैं सड़क ॥
क्यों न लिक्खूँ सच को ज्यों का त्यों बताऊँ बेधड़क ॥
भूले जो काने को काना कह दिया था इक दफ़्आ ,
अपने दुश्मन हो गए थे ग़ैर पढ़ उट्ठे भड़क ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 233 - हुस्न में वो


हुस्न में वो पुरग़ज़ब इंसान था ॥
उसका रब जैसा ही कुछ उनवान था ॥
शक्लोसूरत से था मीठी झील पर ,
फ़ित्रतोसीरत से रेगिस्तान था ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, May 27, 2013

मुक्तक : 232 - आज कच्चे ही


आज कच्चे ही सभी पकने लगे हैं ॥
इसलिए जल्दी ही सब थकने लगे हैं ॥
अपने छोटे छोटे कामों को भी छोटे-
छोटे भी नौकर बड़े रखने लगे हैं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, May 26, 2013

92 : ग़ज़ल - मछलियों का कछुओं का


मछलियों का कछुओं का कोई काल लगता है ।।
मुझको वो नहीं चारा एक जाल लगता है ।।1।।
घाघ है , बहुत ही है दुष्ट किंतु मुखड़े से ,
वो नया युवा प्यारा-प्यारा बाल लगता है ।।2।।
साधु आजकल कोई भी हो ध्यान जब करता ,
मुझको जाने क्यों बगुला या विडाल लगता है ।।3।।
तुम हथेलियों पर सरसों जमाने आए हो ,
पल में कैसे हो जाए जिसमें साल लगता है ।।4।।
जो लुटाने तत्पर हो प्यार देश पर अपना ,
दृष्टि में सभी की माई का लाल लगता है ।।5।।
" उम्र भर गुनह कोई किसने ना किया बोलो ?"
मुझको फ़ालतू जैसा ये सवाल लगता है ।।6।।
वक़्त पर खदेड़ा है गाय ने भी शेरों को ,
यों अजीब सुनने में ये क़माल लगता है ।।7।।
वो प्रतीति देता तलवार सी कभी मुझको ,
औ' कभी-कभी निस्संदेह ढाल लगता है ।।8।।
( बाल = बालक , विडाल = बिल्ली )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, May 25, 2013

मुक्तक : 231 - उम्र भर खाली


उम्र भर ख़ाली रहा जो वक़्ते रुख़्सत भर गया ॥
इक वो हैरतनाक ऐसा कारनामा कर गया ॥
जिससे बढ़कर और दुनिया में नहींं ख़ुदगर्ज़ था ,
कल मगर इक अजनबी की जाँ बचाते मर गया ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

91 : ग़ज़ल - कह के आने की गया


कह  के आने की गया आता नहीं ॥
उसके बिन कोई मज़ा आता नहीं ॥
अपनी सच्चाई छिपा कर सब मिलें ,
उससा कोई भी खुला आता नहीं ॥
यों हमारे साथ वो हर वक़्त है ,
देखने में जो ख़ुदा आता नहीं ॥
कोई मजबूरी है यों खुद्दार तो ,
छोड़ कर शर्मो हया आता नहीं ॥
क्या हुई तुझसे ख़ता जल्दी बता ,
तू कभी सर को झुका आता नहीं ॥
हर मुसीबत के लिए तैयार रह ,
कह के कोई ज़लज़ला आता नहीं ॥
मंदिर औ' मस्जिद जहाँ पग-पग पे हों ,
भूलकर वाँ मैकदा आता नहीं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, May 24, 2013

मुक्तक : 230 - कभी भूले जो


कभी भूले जो मेरे साथ तू तनहा सफ़र करता ॥
भले दो डग या मीलों मील का लंबा सफ़र करता ॥
क़सम से सुर्ख़ अंगारों पे तलवारों पे भी चलते ,
मुझे महसूस होता था मैं जन्नत का सफ़र करता ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 229 - दुपट्टे बिन न


दुपट्टे बिन न आगे ब्रह्मचारी के तू आया कर ॥
विधुर के सामने यौवन को मत खुलकर दिखाया कर ॥
तू निःसन्देह सुंदर है , है आकर्षक बड़ी पर स्थिर-
सरोवर में न यों बारूद के गोले गिराया कर ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, May 23, 2013

मुक्तक : 228 - मेघ की रोज़


मेघ की रोज़ मरुस्थल पुकार करता है ॥
किन्तु मेघ अपना जल नदी पे वार करता है ॥
मैंने पाया है जिनके पास प्रचुर धन-दौलत ,
उनपे चित लक्ष्मी , कुबेर प्यार करता है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 227 - निकट स्वादिष्ट भोजन


निकट स्वादिष्ट भोजन के भी उपवासा रखा हमको ॥
विकट दुर्भाग्य ने बरसात में प्यासा रखा हमको ॥
कभी भर दोपहर में जेठ की रेती पे नंगे पग ,
अहर्निश बर्फ पे कई पूस नागा सा रखा हमको ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, May 22, 2013

मुक्तक : 226 - क़िस्म क़िस्म की


क़िस्म क़िस्म की नई नई वह साजिश रोज़ रचे ॥
मुझ पर क़ातिल घात लगाए कैसे जान बचे ?
वो पैनी तलवार लिए मैं नाजुक सी गर्दन ,
देखें बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनाए नचे ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 225 - उजड़े हुए चमन


उजड़े हुए चमन की तरह आजकल हूँ मैं ॥
सस्ते घिसे कफ़न की तरह आजकल हूँ मैं ॥
हालत पे अपनी ख़ुद ही मैं भी शर्मसार हूँ ,
इक कुचले नाग फन की तरह आजकल हूँ मैं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, May 21, 2013

मुक्तक : 224 - अथक परिश्रम


अथक परिश्रम पर कुछ , कुछ निष्ठा-आधृत पायीं ॥
कुछ इक बातें संयोग मात्र कुछ भाग्याश्रित पायीं ॥
कभी स्वयं बिल्ली के भागों छींके टूट गिरे ,
कभी कठिनता से इक मूष न कर अर्जित पायीं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 223 - बछड़े के लिए


( चित्र Google Search से साभार )
बछड़े के लिए कुछ तो दूध छोड़ दे कट्टर ॥
कितना दुहेगा रहम भी कर गाय के थन पर ॥
बिन दाँत के बछड़े को घास अभी से परोसे ,
दम है तो अपने दुधमुँँहे के आगे रोटी धर ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, May 20, 2013

मुक्तक : 222 - बादल भरी

बादल भरी दुपहरी में घनघोर हो गए ॥
बारिश हुई तो पेड़-पौधे मोर हो गए ॥
सूखे से हलाकान थे इंसान औ जानवर ,
होकर के तर-बतर मुदित विभोर हो गए ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 


Sunday, May 19, 2013

मुक्तक : इंसाफ़


( चित्र Google Search से साभार )
जो भी दुष्कृत्य करे उसको हरगिज़-हरगिज़ मत माफ़ करो ।।
चुन-चुनकर उसके अपनों को , भी उसके सख़्त ख़िलाफ़ करो ।।
मिलकर सब जूते मार उसे , फिर कर औरत के नाक़ाबिल ;
तब चौराहे पर फाँसी दे , उसको दुनिया से साफ़ करो ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, May 18, 2013

मुक्तक : 221 - पहले के ज़माने


पहले के ज़माने में तो घर घर थे कबूतर ॥
इंसानी डाकिये से भी बेहतर थे कबूतर ॥
इस दौर में वो ख़त-ओ-किताबत नहीं रही ,
सब आशिक़ों पे ज़ाती नामावर थे कबूतर ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 






       
 

मुक्तक : 220 - क़ुराने पाक


क़ुराने पाक ओ गीता की क़सम खाकर मैं कहता हूँ ॥
जहाँ तक मुझसे बन पड़ता है मैं चुपचाप रहता हूँ ॥
मगर इक हद मुक़र्रर है मेरे भी सब्र की जायज़ ,
न औरों पर सितम ढाऊँ न ख़ुद पर ज़ुल्म सहता हूँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 219 - हारा नहीं हूँ



हारा नहीं हूँ चलते चलते थोड़ा रुक गया ॥
सुस्ता रहा हूँ मत समझना ये कि चुक गया ॥
हैं बेक़रार मुझको तोड़ने जब आँधियाँ ,
मैं भी सलामती को अपनी थोड़ा झुक गया ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, May 17, 2013

चित्र-मुक्तक : 218 - वो यक़ीनन नहीं



वो यक़ीनन नहीं दुश्मन वो यार होता है ॥
ऐसे चढ़कर के जो गर्दन सवार होता है ॥
आजकल इतनी बेतकल्लुफ़ी कहाँ दिखती ,
दोस्तों में न अबके इतना प्यार होता है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, May 16, 2013

मुक्तक : 217 - चार क़दम पर



चार क़दम पर मंज़िल हो तो पहुँचें हम पैदल ॥
छोटी मोटी दूरी पार करें लेकर साइकल ॥
पर्यावरण रखें यों बेहतर सेहत को अच्छा ,
र बचाएँ नित-नित घटता पेट्रोल और डीज़ल ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 216 - न इक़दम ही नई






न इकदम ही नयी है और न ये सदियों पुरानी है ॥
किसी से क्या कहलवाएँ ख़ुद अपनी मुँहज़बानी है ॥
बड़ी दुश्वारियों से पाके आसानी से खोया उस ,
लम्हा भर इश्क़ की मेरे सनों लंबी कहानी है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, May 15, 2013

मुक्तक : 215 - इसके सिवा न



इसके सिवा न और कोई पास था चारा ॥
तब तो लिया है एक खिलौने का सहारा ॥
दिल का गुबार और किस तरह निकालते ,
होता जो कान देके सुनने वाला हमारा ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

90 - ग़ज़ल - शिकंजे यूं कसे थे


शिकंजे यूँ कसे थे मुझपे तिल भर हिल नहीं पाया ।।
हिला तो यों फटा ताउम्र कोई सिल नहीं पाया ।।1।।
मुझे फेंका गया था सख़्त बंजर सी ज़मीनों पर ,
मैं फ़िर भी ऊग बैठा हूँ बस अब तक खिल नहीं पाया ।।2।।
उठाए अपने सर हाथी पहाड़ों से मैं उड़ता हूँ ,
तुम्हारी बेरुख़ी के पंख का चूज़ा न झिल पाया ।।3।।
न हो हैरतज़दा चमड़ी मेरी है खाल गैंडे की ,
वगरना कौन मीलों तक घिसट कर छिल नहीं पाया ।।4।।
मेरे हाथों में वो सब है न हूँ जिसका तमन्नाई ,
हुआ हूँ जबसे हसरत है वो सामाँ मिल नहीं पाया ।।5।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, May 14, 2013

मुक्तक : 214 - अमावस को भी


अमावस को भी हाँ पूनम की उजली रात लिखता हूँ ॥
न तोड़े जो किसी का दिल कुछ ऐसी बात लिखता हूँ ॥
मगर गाहे बगाहे ही ; हमेशा तो क़सम ले लो ,
सज़ा को मैं सज़ा , सौग़ात को सौग़ात लिखता हूँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


मुक्तक : 213 - आहिस्ता-आहिस्ता औरत



आहिस्ता-आहिस्ता औरत निकलेगी पर्दों से ॥
उस दिन आगे-आगे होगी आगे के मर्दों से ॥
आजिज़ आ ठानेगी जिस दिन छुटकारा पाने की ,
जुल्म-ओ-सितम से , बंदिश से , लाचारी से , दर्दों से ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 212 - घर बैठे



घर बैठे मुफ़्त की मैं रोटी नहीं चबाती ॥
भर पाऊँ पेट अपना इतना तो हूँ कमाती ॥
हूँ ग्रेजुएट फिर भी संकोच तब न करती ,
रिक्शा चला-चला जब मैं घर को हूँ चलाती ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 211 - सावधानी सावधानी



सावधानी , सावधानी , सावधानी ॥
हर क़दम पर रख बचा बचपन जवानी ॥
चीखतीं बेखौफ़ लापरवाहियाँ झट ,
लूट लेतीं खूबसूरत ज़िंदगानी ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, May 13, 2013

मुक्तक : 210 - हो गए घर घर



हो गए घर-घर पलंग खटिया पुरानी पड़ गई ॥
जबसे छत ढलने लगे टटिया पुरानी पड़ गई ॥
काल ने नख-शिख बदल डाला सकल परिदृश्य का ,
केश लहराने लगे चुटिया पुरानी पड़ गई ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

डर तो उन्हें नहीं है......................

डर तो उन्हें नहीं है किसी बात का लेकिन ,
न उनको इंतज़ार नखत रात का लेकिन ,
क्या सोच के बढ़े क़दम हठात रुक गए ?
आगे को जाते जाते पीछे हाथ रुक गए ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...