Tuesday, December 31, 2019

गीत : 52 - नववर्ष


किस मुंँह से फिर मनाएँ , नववर्ष का वे उत्सव ।।
जिनको मिली न जीतें , जिनका हुआ पराभव ।।
व्यसनी तो करते सेवन ; हो ना हो कोई अवसर ,
कुछ लोग पान करते ; मदिरा का हर्ष में भर ,
कतिपय हों किंतु ऐसे ,भी लोग सर्वथा जो ;
पीते असह्य दुख में , आकण्ठ डूब आसव ।।
किस मुंँह से फिर मनाएँ , नववर्ष का वे उत्सव ।।
जिनको मिली न जीतें , जिनका हुआ पराभव ।।
जीवन में जिसके संशय ; धूनी रमा के बैठा ,
दुर्भाग्य घर में घुसकर ; डेरा जमा के बैठा ,
जिस मन में व्याप्त कोलाहल-चीत्कार-क्रंदन ,
इक रंच मात्र भी ना पंचम स्वरीय कलरव ।।
किस मुंँह से फिर मनाएँ , नववर्ष का वे उत्सव ।।
जिनको मिली न जीतें , जिनका हुआ पराभव ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, December 29, 2019

ग़ज़ल : 283 - आशिक़ी


मुझको लगता है ये ज़ह्र खा , ख़ुदकुशी कर ना जाऊँ कहीं ? 
अगले दिन की करूँ बात क्या , आज ही कर ना जाऊँ कहीं ? 
है तो दुश्मन मेरा वो मगर , ख़ूबसूरत हसीं इस क़दर ;
देखकर मुझको होता है डर , आशिक़ी कर ना जाऊँ कहीं ? 
एक वाइज हूँ मैं पर मेरी , इक शराबी से है दोस्ती ;
मुझ को शक़ हो मैं भूले कभी , मैक़शी कर ना जाऊँ कहीं ? 
मस्ख़री की लतीफ़ेे कहे , देख सुन भी वो चुप ही रहे ;
देखने उसका हँसना उसे , गुदगुदी कर ना जाऊँ कहीं ?
आज हालात हैं पेश वो , उम्र भर हाय जिस काम को ;
सख़्त करने से बचता रहा , मैं वही कर ना जाऊँ कहीं ? 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, December 28, 2019

मुक्तक : 943 - मिर्ची


 मिर्ची ही गुड़ समझकर हँस-हँस चबा रहे हैं ।।
तीखी है पर न आँखें टुक डबडबा रहे हैं ।।
कुछ हो गया कि चाकू से काटते हैं पत्थर ,
पानी को मुट्ठियों में कस-कस दबा रहे हैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, December 25, 2019

मुक्तक : 942 - बादशाह


पागल नहीं तो क्या हैं अपने दुश्मनों को भी ,
जो मानते हैं तह-ए-दिल से ख़ैरख़्वाह हम ?
करते हैं अपने बेवफ़ाओं को भी रात-दिन ,
सच्ची मोहब्बतें औ' वह भी बेपनाह हम ।।
किस डर से हम न जानें ये अमीर लोग-बाग ,
कहते हैं अपने आपको फ़क़ीर दोस्तों ;
बेदख़्ल होके भी ज़मीन-जाएदाद से ,
क्यों अब भी ख़ुद को मानते हैं बादशाह हम ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, December 24, 2019

मुक्तक : 941 - बेवड़ा


लोग चलते रहे , दौड़ते भी रहे , 
कोई उड़ता रहा , मैं खड़ा रह गया ।।
बाद जाने के तेरे मैं ऐसी जगह , 
जो गिरा तो पड़ा का पड़ा रह गया ।।
सोचता हूँ कि कितने मेरे सामने , 
नाम तक भी न दारू का जिनने लिया ;
इक के बाद इक गुजरते गए दिन-ब-दिन , 
ज़िंदा मुझ जैसा क्यों बेवड़ा रह गया ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, December 23, 2019

मुक्तक : 940 - भूख


हाँ कई दिन से न था खाने को मेरे पास कुछ ।।
आगे भी रोटी के मिलने की नहीं थी आस कुछ ।।
भूख में इंसाँ को अपने मार मैं पशु बन गया ,
जाँ बचाने को चबाने लग गया मैं घास कुछ ।।
- डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, December 21, 2019

मुक्तक : 939 - ख़ैरात में


चमचमाते दिन में ना 
भूले भी काली रात में ।।
क़र्ज़ में हरगिज़ नहीं , 
बिलकुल नहीं सौग़ात में ।।
मुझपे गर दिल आये तो ही 
मुझसे करना प्यार तू , 
लूटना है दिल तेरा , 
पाना नहीं ख़ैरात में ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, December 1, 2019

दीर्घ मुक्तक : 938 - सर को पटक


ज़ुल्फ़ों में तेरी टाँकने काँंटों में खिले गुल ,
हाथों को किया ज़ख़्मी मगर तोड़ के लाया ।।
अखरोट जो पत्थर से भी हैं फूटें बमुश्किल ,
ख़्वाहिश पे तेरी सर को पटक फोड़ के लाया ।।
आया है किसी सख़्त से भी सख़्त ये कैसा ?
आया हूँ तो जाने का तेरे वक़्त ये कैसा ?
जाता था कहीं और मगर हाय रे ! ख़ुद को ,
तेरी ही सदा पर तो यहाँ मोड़ के लाया ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, November 15, 2019

ग़ज़ल : 282 - शंघाई


हूँ बहुत बदशक्ल कुछ रानाई लाकर दे ।।
देख सब मुँह फेरें इक शैदाई लाकर दे ।।
हर तरफ़ से बस नुकीला खुरदुरा ही हूँ ,
आह कुछ गोलाई , कुछ चिकनाई लाकर दे ।।
बख़्श मत ऊँचाई बेशक़ बित्ते भर क़द को ,
आदमी जैसी मगर लंबाई लाकर दे ।।
मुझ में खोकर , मुझसे ! खुद को ; ज्यों का त्यों वापस ,
वो न थी जिसकी ज़ुबाँ चिल्लाई लाकर दे ।।
मह्फ़िलो मज्मा मुझे बेचैन करते हैं ,
जो सुकूँ दे , मुझको वो तनहाई लाकर दे ।।
ख़्वाब में तोहफ़े में उसने मुझको दी दिल्ली ,
मैंने नींदों में कहा शंघाई लाकर दे ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 937 - ख़ूबसूरत



  ( चित्र Google Search से अवतरित )
एक से बढ़कर हैं इक बुत , तुझसी मूरत कौन है ?
हुस्न की दुनिया में तुझसा ख़ूबसूरत कौन है ?
तू सभी का ख़्वाब , तू हर नौजवाँ की आर्ज़ू ,
ऐ परी ! लेकिन बता तेरी ज़रुरत कौन है ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, November 12, 2019

ग़ज़ल : 281 - दिला


अजब इक ग़मज़दा के पीछे चलता क़ाफ़िला है ।।
नहीं रोता कोई हर शख़्स का चेह्रा खिला है ।।
जो कहता था न जी पाऊँगा इक दिन बिन तुम्हारे ,
वो सालों-साल से ख़ुश रह रहा मेरे बिला है ।।
न जाने किस ग़लतफ़हमी में पड़ वो मुझसे रूठे ,
बता दें गर तो कर दूँ दूर जो शिक्वा-गिला है ।।
मैं जैसा भी हूँ अपनी वज़्ह से हूँ और ख़ुश हूँ ,
ये मेरा हाल मेरी हक़परस्ती का सिला है ।।
कोई कितना भी ताक़तवर हो लेकिन आदमी के ,
हिलाने से न इक पर्वत कभी कोई हिला है ।।
वो झूठा है जो कहता है कि उसने जो भी चाहा ,
उसे हर बार आगे-पीछे या अक्सर मिला है ।।
बना हो जो निखालिस और ख़ुशबूदार ज़र से ,
भला किसका यहाँ उसके सिवा वो दिल ; दिला है ।।
( बिला =बग़ैर , हक़परस्ती =सत्यनिष्ठा , ज़र =स्वर्ण , दिला =हे हृदय  )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, November 10, 2019

दीर्घ मुक्तक : 936 - हाय


बस उसको देखते ही सच , 
कई सालों पुरानी इक ,
मैं अपनी ही क़सम का ख़ुद 
ही क़ातिल होने जाता हूँ ।।
मोहब्बत में नहीं हरगिज़ 
पड़ूँगा ख़ूब सोचा था ,
मगर अब इश्क़ में हर वक़्त 
ग़ाफ़िल होने जाता हूँ ।।
न लैला का मुझे मजनूँ , 
न बनना हीर का राँझा ;
न मस्तानी का बाजीराव , 
ना फरहाद शीरीं का ;
करूँ क्या बन रही जो 
फ़ेहरिस्त अब आशिक़ों वाली ,
मैं उसमें सबसे ऊपर हाय 
शामिल होने जाता हूँ ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, November 9, 2019

दीर्घ मुक्तक : 935 - सूरज


जो पकड़ पाता नहीं खरगोश का बच्चा ,
अपनी इक मुट्ठी में गज-ऊरज पकड़ डाला ।।
जो न गुब्बारा फुला सकता , बजाने को ,
आज उसने हाथ में तूरज पकड़ डाला ।।
आज तो जानूँ न क्या-क्या मुझसे हो बैठा ?
पत्थरों में फूल के मैं बीज बो बैठा ।
धूप में भी जो झुलस जाता है रात उसने ,
दोपहर का स्वप्न में सूरज पकड़ डाला ।।
( गज-ऊरज = बलिष्ठ हाथी , तूरज = तुरही जिसे उच्च शक्ति से फूँककर बजाया जाता है )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, November 5, 2019

ग़ज़ल : 280 - लफ़ड़ा है


बेसबब मेरा नहीं दुनिया से झगड़ा है ।।
मुझको सच कहने की बीमारी ने जकड़ा है ।।
गर वो अब मुझसे लड़ा सीधा पटक दूँगा ,
देखने में वो भले ही मुझसे तगड़ा है ।।
दोनों तन्हाई में छुप-छुप मिलते , बतियाते ,
बीच में उनके यक़ीनन कुछ तो लफड़ा है ।।
मैं भी चिकना था मगर हालात ने मुझको ,
जाने किन-किन पत्थरों पर पटका-रगड़ा है ?
मर के भी मुझ में लचक उसके लिए बाक़ी ,
मेरी ख़ातिर अब भी वह मुर्दे सा अकड़ा है ।।
मुझसे बचकर भागने वाले ने जाने किस ,
रौ में बह ख़ुद आज मेरा हाथ पकड़ा है ?
और क्या सामान जीने लाज़मी मुझको ,
एक घर ,भरपेट रोटी , तन पे कपड़ा है ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, November 3, 2019

मुक्तक : 934 - अगर बख़्श दे मौत


कहा मैंने गोरे से गोरे को काला ,
सताइश मैं अब सबकी खुलकर करूँगा ।।
महासूम बनकर रहा अब क़सम से , 
मैं फ़ैय्याज़ बस कर्ण जैसा बनूँगा ।।
अभी तक किसी के लिए ना किया कुछ ।
हमेशा लिया ही लिया ना दिया कुछ ।
अगर बख़्श दे मौत कुछ और दिन सच 
मैं इस बार औरों की ख़ातिर जिऊंगा ।। 
( सताइश = प्रशंसा , महासूम = बहुत बड़ा कंजूस , फ़ैय्याज़ = दानी )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, November 2, 2019

दीर्घ मुक्तक : 933 - दुनिया


माँगा था मैंने उनसे जो चाह कर भी अब वे ,
मालूम है न हरगिज़ ला पाएँगे कभी रे ।।
रहता है फिर भी उनका ही इंतिज़ार भरसक ,
है जब पता न वे अब आ पाएँँगे कभी रे ।।
बनकर हमारी दुनिया ; दुनिया से जाने वाले ।
होकर हमारे हमको ,अपना बनाने वाले ।
करते न प्यार इतना गर जानते कि दिल से ,
शायद न जीते जी वे जा पाएँगे कभी रे।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, October 31, 2019

मुक्तक : 932 - अनगढ़


उतरता रहा हूँ  कि चढ़ता रहा मैं ?
मगर इतना तय है कि बढ़ता रहा मैं ।।
कभी भी किसी बुत को तोड़ा न मैंने ,
हमेशा ही अनगढ़ को गढ़ता रहा मैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, October 30, 2019

ग़ज़ल : 279 - दुश्मन


कँवल जैसा खिला चेहरा वो कब दहशतज़दा होगा ?
कब उस दुश्मन के पीछे एक पड़ा वहशी ददा होगा ?
हमेशा मुस्कुराता है , सदा हँसता ही रहता है ,
वो दिन कब आएगा मेरा अदू जब ग़मज़दा होगा ?
कोई कब तक बचा रक्खेगा ख़ुद को हाय ! पीने से ,
किसी के घर के आगे ही खुला जब मैक़दा होगा ?
लतीफ़ों पर भी वह कैसे हँसेगा जिसकी क़िस्मत में ,
शुरू से लेके आख़िर तक अगर रोना बदा होगा ?
बचा कुछ भी न अब जब पास मेरे लुट गया सब कुछ ,
लिया मैंने जो उससे है वो फिर कैसे अदा होगा ?
ज़ुबाँ सचमुच कटालूँ गर ज़ुबाँ दे तू मुझे ; कल से ,
मेरी ख़ामोशियों की उम्र भर तू ही सदा होगा ।।
ज़मानत क्या कि मैं सब मार दूँ दुनिया के भिखमंगे ,
ज़माने में न फिर कोई नया पैदा गदा होगा ?
( दहशतज़दा = आतंकित , ददा = हिंसक दरिंदा , मैक़दा = शराबख़ाना , सदा = पुकार , आवाज़ , गदा = भिखारी )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, October 29, 2019

ग़ज़ल : 278 - हल


जकड़ कर वो मुझसे उछल कह रहे हैं ।।
मेरे काटकर पैर चल कह रहे हैं ।।
क़लम क्या ज़रा सी लगे थामने बस ,
नहीं कुछ ग़ज़ल पर ग़ज़ल कह रहे हैं ।।
न जाने है क्या उसमें उसको जहाँ में ,
सिवा मेरे सब ही कँवल कह रहे हैं ?
मैं जैसा हूँ अच्छा हूँ लेकिन मुझे सब ,
जहाँ के मुताबिक़ बदल कह रहे हैं ।।
ज़रा भी न अब लड़खड़ाऊँ मैं फिर क्यों ,
अभी भी मुझे सब सँभल कह रहे हैं ?
अमीर अपने घर में ग़रीबी को घर से ,
बड़े ज़ोर चिल्ला निकल कह रहे हैं ।।
मेरी ; मेरे ; मेरे ही मुँह पर ग़ज़ब है ,
वफ़ादारियों को दग़ल कह रहे हैं !!
हुआ ख़ैरमक़्दम यूँ उनका मेरे घर ,
मेरी झोपड़ी वो महल कह रहे हैं ।।
ज़रा सा मैं उठने को क्या गिर गया हूँ ,
मरा वो मुझे आजकल कह रहे हैं ।।
सवालों पे मेरे , सवालों को अपने ,
वो मेरे सवालों का हल कह रहे हैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, October 28, 2019

दीर्घ मुक्तक : 931 - शिकंजा


उस जिस्म में बला की ख़ूबसूरती थी जो ,
सच इस क़दर किसी में ना दिखी भरी कभी ।।
मलिका-ए-हुस्न थीं तमाम इस जहान में ,
देखी नहीं थी उस सी दूसरी परी कभी ।।
उतरे थे इश्क़ में हम एक रज़्म की तरह ।
मज़बूत था शिकंजा जिसका अज़्म की तरह ।
चाहा तो ख़ूब कोशिशें भी कीं बहुत मगर ,
उसकी गिरफ़्त से न हो सके बरी कभी ।।
( रज़्म = युद्ध , अज़्म = संकल्प )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, October 26, 2019

मुक्तक : 930 - हँसी


यों तो ये सब जाने हैं हम 
कम ही हँसते हैं ;
और ये भी है पता जब 
जब भी हँसते हैं ;
ग़ालिबन फिर इस जहाँ के 
क़हक़हों पर भी ,
जो पड़े भारी ; हँसी 
कुछ ऐसी हँसते हैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, October 25, 2019

मुक्तक : 929 - चुस्कियाँ



याद में ; यार की ; हिचकियाँ ली गयीं ।।
गीत गाते कई मुरकियाँ ली गयीं ।।
दिल हुआ गर नशे का तो दारू नहीं ,
प्याले में चाय की चुस्कियाँ ली गयीं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, October 20, 2019

मुक्तक : 928 - अंदाज़


कुछ मुफ़्लिस अंदाज़ अमीरों के रखते ।।
प्यादा होते ; ठाठ वज़ीरों के रखते ।।
ख़ुद ; ख़ुद से गुम ख़ाली-ख़ाली ग़ैरों के ,
क्यों सब मा'लूमात ज़ख़ीरों के रखते ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, October 18, 2019

मादक , मसृण , मृदुल , महमहा


मादक , मसृण , मृदुल , महमहा ।।
तव यौवन झूमें है लहलहा ।। 
जैसी कल थी तू आकर्षक ।
उससे और अधिक अब हर्षक ।
तू सुंदर , अप्सरा , परी तू ।
उर्वशी , रंभा से भी खरी तू ।
मैं तेरे सम्मुख सच बंदर ।
किंतु मुझे तक उछल उछलकर ,
हाय लगा मत आज कहकहा ।।
मादक , मसृण , मृदुल , महमहा ।।
तव यौवन झूमें है लहलहा ।। 
मैं भी गबरू था बाँका था ,
तब तेरा मेरा टाँका था ,
रोजी-रोटी की तलाश में ,
मैं बदला जिंदा सी लाश में ,
अब तू इक राजा की रानी ,
तू मदिरा सम मैं बस पानी ,
बरसों बाद मिली है चुप कर ,
देख मुझे मत आज चहचहा ।।
मादक , मसृण , मृदुल , महमहा ।।
तव यौवन झूमें है लहलहा ।। 
- डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, October 17, 2019

मुक्तक : 927 - डोली


माथे बीच लगी कालिख ,
छूने भर से अंधा बोले ,
मुझको तो यह हल्दी औ' 
चंदन की रोली लगती है ।।
चपटी से भी चपटी कोई 
ईंट बहुत ही दूरी से ,
तेज़ नज़र को भी शायद 
पूछो तो गोली लगती है ।।
अक़्ल ज़रा सी जिनको ऊपर 
वाले ने कुछ कम बख़्शी ;
आँखें दीं लेकिन उनमें ना 
देखने की कुछ दम बख़्शी ;
ऐसों को हैरत क्या कंधों 
पर चलने वाली अर्थी ,
यदि ख़ामोशी से बढ़ती 
दुल्हन की डोली लगती है ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, October 13, 2019

मुक्तक : 926 - आँधी


आज फिर याद की ऐसी आँधी चली ।।
बुझ चुकी थी जो दिल में वो आतिश जली ।।
मुद्दतों बाद फिर तुम जो आए नज़र ,
इश्क़ ने मुझ में फिर दी मचा खलबली ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, October 8, 2019

ग़ज़ल : 277 - औघड़दानी


चलता है सैलाब लिए मौजों की रवानी माँगे है ।।
इक ऐसा दरिया है जो ख़ैरात में पानी माँगे है ।।
जंगल पर जंगल कटवाने-काटने वाला हैराँ हूँ ,
हाथ पसारे आज ख़ुदा से रुत मस्तानी माँगे है ।।
इश्क़-मोहब्बत से नफ़रत का रिश्ता रखने वाला क्यों ,
आज अकेले में रो-रो इक दिलबरजानी माँगे है ?
उसकी कोई बात सुनी ना जिसने सारी उम्र मगर ,
आज उसी से शख़्स वही उसकी ही कहानी माँगे है ।।
रोजी-रोटी के लाले जिसको वो कब सोना-चाँदी ,
वह ख़्वाबों में भी रब से बस दाना-पानी माँगे है ।।
हाय नज़र जिस ओर पड़े उस जानिब ज़ह्र दिखाई दे ,
बेशक़ अब दुनिया की फ़ज़ा बस औघड़दानी माँगे है।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, October 7, 2019

मुक्तक : 925 - क्यों ?



इश्क़-मोहब्बत की बातें करने से वह क्यों बचता है ?
क्या अब तक नाबालिग़ है वह या फिर कोई बच्चा है ? 
हाय ! जवाँ क्या बच्चे भी जिस दौर में इश्क़ हैं फ़रमाते ,
वह पट्ठा क्यों सिर्फ़ ज़ुह्द की भारी बातें करता है ?
( नाबालिग़ = अवयस्क , पट्ठा = जवान , ज़ुह्द = विरक्ति , इंद्रिय निग्रह )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, October 6, 2019

ग़ज़ल : 276 ( B ) - रो रहे हैं


आजकल हालात ऐसे हो रहे हैं ,
मस्ख़रे भी खूँ के आँसू रो रहे हैं ।।
जागते रहिए ये कहने वाले प्रहरी ,
कुंभकरणी नींद में सब सो रहे हैं ।।
लोग सच्चे , हाल बदतर देख सच का ,
झूठ ही बच्चों में अपने बो रहे हैं ।।
खेलने की उम्र में कितने ही बच्चे ,
सर पे गारा , ईंट , पत्थर ढो रहे हैं ।।
वो उन्हें पाने की ज़िद में अपना सब कुछ ,
धीरे-धीरे , धीरे-धीरे खो रहे हैं ।।
भागते जाए हैं वो - वो हमसे कल तक ,
हमपे सौ जाँ से फ़िदा जो-जो रहे हैं ।।
दाग़ पेशानी के झूठे-सच्चे सारे ,
जितना मुमकिन उतना रो-रो धो रहे हैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, October 5, 2019

मुक्तक : 924 - इक रब मानते हैं


मत हो हैराँ जान कर बेदिल ये सच है ,
एक बस हम ही नहीं सब मानते हैं ।।
जो भी सच्चा प्यार करते हैं जहाँ में ,
इश्क़ को ही ज़ात-ओ-मज़हब मानते हैं ।।
और तो और इश्क़ जब हद पार कर ले ,
माने आशिक़ को ख़ुदा महबूबा उसकी ;
और आशिक़ लोग महबूबा को अपनी ,
तह-ए-दिल से अपना इक रब मानते हैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, September 30, 2019

मुक्तक : 923 - मश्वरा


लेकर मशाल रौशन करने न चल पड़ो तुम 
उसको जो कोयले की इक खान है ; सँभलना ।।
आँखों में नींद भर उस पर चल दिए हो सोने ,
बिस्तर सा वो नुकीली चट्टान है ; सँभलना ।।
अंदर है उसमें ज़िंदा ज्वालामुखी धधकता ,
लेकिन ज़ुबाँ से उसके ठंडा शहद टपकता ,
इक मश्वरा है उससे मत दोस्ती रखो सच ,
तुम झोंपड़ी हो वो इक तूफ़ान है ; सँभलना ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Friday, September 27, 2019

मुक्तक : 922 - नच रहा हूँ


तुम मानों या न मानों 
यह कह मैं सच रहा हूँ ।।
बारिश में भीगने से 
हरगिज़ न बच रहा हूँ ।।
दरअस्ल मैं किसी को 
नीचे दरख़्त के रुक ,
चोरी से नचते तक दिल 
ही दिल में नच रहा हूँ ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, September 19, 2019

मुक्तक : 921 - गिर पड़ा हूँ


हैरान हो रहे हो , मैं कल सा फिर पड़ा हूँ ?
हँसते ही हँंसते कैसे , अश्क़ों से घिर पड़ा हूँ ?
मैं आज भी नशे में हूँ पर नहीं नशे से ,
ठोकर किसी के धोख़े की खा के गिर पड़ा हूँ ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, September 16, 2019

मुक्तक : 920 - चाहत


तुम्हीं एक से जिस्म आहत कहाँ है ?
किसी से भी इस दिल को राहत कहाँ है ?
अगर ख़ुश नहीं हूँ तो ये मत समझना ,
अभी मुझमें हँसने की चाहत कहाँ है ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, September 15, 2019

ग़ज़ल : 276 - जिद्दोजहद


बड़ी जिद्दोजहद से , कशमकश से , ख़ूब मेहनत से ।।
न हो हैराँ मोहब्बत की है मैंने घोर नफ़रत से ।। 1 ।।
हूंँ जो आज इस मुक़ाँ पर तो बड़ी ही मुश्क़िलों से हूँ ,
न इत्मीनान से , आराम से , ना सिर्फ़ क़िस्मत से ।। 2 ।।
यक़ीनन जंग लड़कर ही किया मैंने भी हक़ हासिल ,
मिला कब माँगने से , इल्तिजा से , सिर्फ़ चाहत से ।। 3 ।।
न जब राज़ी हुए थे वो मेरी दरख्व़ास्त सुनने को ,
मैं चढ़ बैठा था नीचे कूदने ऊँची इमारत से ।। 4 ।।
वहाँ सख्त़ी से , बेदर्दी से उसने दिल किये टुकड़े ,
यहाँ तोड़ा न मैंने पत्थरों को भी नज़ाकत से ।। 5 ।।
ज़रूरी तो नहीं सूरत अमीराना हो जिसकी वो ,
हक़ीक़त में हो दौलतमंद , ना हो तंग ग़ुर्बत से ।। 6 ।।
( जिद्दोजहद = पराक्रम , कशमकश = असमंजस , इल्तिजा = निवेदन , ग़ुर्बत = कंगाली )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, September 12, 2019

महामुक्तक : 919 - परिवर्तन


जो दिया करते थे सौग़ातों पे सौग़ातें ,
आज वो ही लूटने हमको मचलते हैं ।।
जो हमारे सिर का सारा बोझ ढोते थे ,
अब वही पैरों तले हमको कुचलते हैं ।।
जो लगे रहते थे सचमुच इक ज़माने में ,
हाँ ! मिटाकर ख़ुद को हमको बस बनाने में ,
करके वो नुक़्साँ हमारा , ढेर दे तक़्लीफ़ ,
भर ख़ुशी से आज बंदर सा उछलते हैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, September 10, 2019

गीत : 51 - अर्द्ध शतक


हाय मंसूबा नहीं इक अब तलक पूरा हुआ ।।1।।
जबकि अपनी उम्र का आधा शतक पूरा हुआ ।।2।।
क्या नहीं हमने किया मंज़िल को पाने वास्ते ।
रौंद डाले काँटों , अंगारों भरे सब रास्ते ।
कुछ ने कम मेहनत में भी है पा लिया अपना मुक़ाम ।
कुछ ने बैठे - बैठे ही हथिया लिया अपना मुक़ाम ।।
और इक हम हैं कि जिनका बिन रुके लंबा सफ़र ,
धीरे - धीरे रेंग कर , ना चल लपक पूरा हुआ ।।3।।
हाय मंसूबा नहीं इक अब तलक पूरा हुआ ।।
जबकि अपनी उम्र का आधा शतक पूरा हुआ ।।
हमने जिस दिन से कफ़न को बेचना चालू किया ।
ठीक उसी दिन से सभी लोगों ने मरना तज दिया ।
हाथ उनके आइने अंधों को सारे बिक गए ।
और कंघे भी निपट गंजों को सारे बिक गए ।
ख़्वाब उनका सोते-सोते हो गया सच और इधर ,
आँख खोलेे ना सतत पलकें झपक पूरा हुआ ।।4।।
हाय मंसूबा नहीं इक अब तलक पूरा हुआ ।।
जबकि अपनी उम्र का आधा शतक पूरा हुआ ।।
जाने कैसी-कैसी तदबीरें लगाते हम रहे ।
हर तरह की सोच-तरकीबें लगाते हम रहे ।
काम से कब हमने जी अपना चुराया था मगर ।
बल्कि ख़ुद को डूब कर उसमें भुलाया था मगर ।
काम सब के नाचते-गाते हुए सब बन गए ,
अपना इक भी हँसते-हँसते ना फफक पूरा हुआ ।।5।।
हाय मंसूबा नहीं इक अब तलक पूरा हुआ ।।
जबकि अपनी उम्र का आधा शतक पूरा हुआ ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, September 9, 2019

मुक्तक : 918 - गुलगुला


तीखा मौसम मालपुआ , गुलगुला हुआ है ।।
धरती गीली श्याम गगन अब धुला हुआ है ।।
हम इसके आनन्द में रम भूल ये गए कब ,
बरखा बंद हुई पर छाता खुला हुआ है ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, September 8, 2019

मुक्तक : 917 - बिल


जब कभी तू हर इक शख़्स का ख़्वाब थी ,
तू मेरा भी थी मक़्सद , थी मंज़िल कभी ।।
आशिक़ों की तेरे जब बड़ी फ़ौज थी ,
उसमें चुपके से मैं भी था शामिल कभी ।।
तू न माने ज़माने के आगे तो क्या ,
है हक़ीक़त मगर तुझको सारी पता ,
मेरे दिल में तेरी इक बड़ी माँद थी ,
तेरे दिल में था मेरा भी इक बिल कभी ।। 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, September 2, 2019

मुक्तक : 916 - झक


उनके लिए जो मारते हैं झक अभी भी हम ?
समझे नहीं ये बात आज तक , अभी भी हम ।।
उनको नहीं सुहाते फूटी आँख हम मगर !
उनको ही ताकते हैं एकटक अभी भी हम ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, August 25, 2019

मुक्तक : 915 - ग़ुस्सा


रेलगाड़ी गुज़रे जर्जर पुल से ज्यों कोई ,
इस तरह दिल देख उसको धड़धड़ाता है ।।
तक मुझे ता'नाज़नी करता वो कुछ ऐसी ,
कान में पिघला हुआ ज्यों काँच जाता है ।।
मैं न ग़ुस्सेवर ज़रा पर पार कर जाए ,
देखकर उसको मेरा सात आस्माँ ग़ुस्सा ,
जोंक बनकर जिसने मेरी ज़िंदगी चूसी ,
उसका पी जाने लहू मन कसमसाता है ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, August 17, 2019

मुक्तक : 914 - मरीज़-ए-इश्क़


मैंने माना मैं मरीज़-ए-इश्क़ तेरा , 
और तू मेरे लिए बीमार है , हाँ ।।
दरमियाँ अपने मगर सदियों पुरानी ; 
एक पक्की चीन की दीवार है , हाँ ।।
इक बड़ा सा फ़र्क़ तेरी मेरी हस्ती ; 
ज़ात , मज़हब , शख्स़ियत , औक़ात में है ,
यूँ समझ ले मैं हूँ इक अद्ना सी मंज़िल ; 
तू फ़लकबोस इक कुतुबमीनार है , हाँ ।।
( दरमियाँ = मध्य , फ़लकबोस = गगनचुंबी )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, August 15, 2019

तिरंगा


बात करता है तिरंगे को जलाने की ।।
कोशिशें करता है भारत को मिटाने की ।।
ये सितारा-चाँद हरे रँग पर जड़े झण्डा ,
सोचता है बंद हवा में फरफराने की ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, August 13, 2019

मुक्तक : 913 - स्वप्न


दादुर उछल शिखी को नचना सिखा रहा है ।।
ज्ञानी को अज्ञ अपनी कविता लिखा रहा है ।।
उठ बैठा चौंककर मैं जब स्वप्न में ये देखा ,
इक नेत्रहीन सुनयन को अँख दिखा रहा है ।।
( दादुर = मेंढक , शिखी = मोर , अज्ञ = मूर्ख )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 912 - तस्वीर

धागा भी हो गया इक ज़ंजीर आज तो ।।
काँटा भी लग रहा है शमशीर आज तो ।।
कल तक की भीगी बिल्ली बन बैठी शेरनी ,
तब्दीलियों की देखो तस्वीर आज तो ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, August 7, 2019

मुक्तक : 911 - हुजूर


सोचा नहीं था मुझसे मेरा हुजूर होगा ।।
जितना क़रीब था वो उतना ही दूर होगा ।।
मैं मानता कहाँ हूँ दस्तूर इस जहाँ का  ,
आया है जो भी उसको जाना ज़रूर होगा ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, August 6, 2019

मुक्तक : 910 - बारिश


उनसे मिलकर हमको करना था बहुत कुछ रात भर ।। 
कर सके लेकिन बहुत कुछ करने की हम बात भर ।।
नाम पर बारिश के बदली बस टपक कर रह गयी ,
हमने भी कर उल्टा छाता उसमें ली बरसात भर ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, August 4, 2019

मुक्तक : 909 - बरसात


उड़-दौड़-चलते-चलते थक स्यात् रुक गई है ।।
हो-होके ज्यों झमाझम दिन-रात चुक गई है ।।
छतरी न थी तो सर पर दिख-दिख टपक रही थी ,
आते ही छत के नीचे बरसात लुक गई है ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, July 31, 2019

मुक्तक : 908 - गर्मी की दोपहर


लाकर कहीं से उनपे बादलों को छाऊँ मैं ।। 
भरभर हिमालयों से बर्फ जल चढ़ाऊँ मैं ।।
गर्मी की दोपहर के सूर्य से वो जल रहे ,
सोचूँ किसी भी तरह से उन्हें बुझाऊँ मैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, July 29, 2019

मुक्तक : 907 - छाता


आता हुआ मैं या फिर जाता ख़रीद लूँ ।।
मन को हो नापसंद या भाता ख़रीद लूँ ।।
लेकिन ये लाज़िमी है बाज़ार से कोई ,
बरसात आ रही इक छाता ख़रीद लूँ ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...