Monday, October 28, 2019

दीर्घ मुक्तक : 931 - शिकंजा


उस जिस्म में बला की ख़ूबसूरती थी जो ,
सच इस क़दर किसी में ना दिखी भरी कभी ।।
मलिका-ए-हुस्न थीं तमाम इस जहान में ,
देखी नहीं थी उस सी दूसरी परी कभी ।।
उतरे थे इश्क़ में हम एक रज़्म की तरह ।
मज़बूत था शिकंजा जिसका अज़्म की तरह ।
चाहा तो ख़ूब कोशिशें भी कीं बहुत मगर ,
उसकी गिरफ़्त से न हो सके बरी कभी ।।
( रज़्म = युद्ध , अज़्म = संकल्प )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

1 comment:

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । शास्त्री जी ।

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

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