Tuesday, October 8, 2019

ग़ज़ल : 277 - औघड़दानी


चलता है सैलाब लिए मौजों की रवानी माँगे है ।।
इक ऐसा दरिया है जो ख़ैरात में पानी माँगे है ।।
जंगल पर जंगल कटवाने-काटने वाला हैराँ हूँ ,
हाथ पसारे आज ख़ुदा से रुत मस्तानी माँगे है ।।
इश्क़-मोहब्बत से नफ़रत का रिश्ता रखने वाला क्यों ,
आज अकेले में रो-रो इक दिलबरजानी माँगे है ?
उसकी कोई बात सुनी ना जिसने सारी उम्र मगर ,
आज उसी से शख़्स वही उसकी ही कहानी माँगे है ।।
रोजी-रोटी के लाले जिसको वो कब सोना-चाँदी ,
वह ख़्वाबों में भी रब से बस दाना-पानी माँगे है ।।
हाय नज़र जिस ओर पड़े उस जानिब ज़ह्र दिखाई दे ,
बेशक़ अब दुनिया की फ़ज़ा बस औघड़दानी माँगे है।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

1 comment:

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । शास्त्री जी ।

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