दर्द को चुपचाप ही हमने
सहा ;
आँख से आँसू न कोई भी
बहा ॥
हम जो सुनना चाहते थे
उसने वो ,
ना ज़ुबाँ से औ’ न आँखों
से कहा ॥
बुझ गए हम उसको देते
देते आँच ,
वो पिघलकर भी नहीं लेकिन
बहा ॥
बात तो थी फूटकर रोने
की सच ,
मुँह से फूटा जाने क्यों
इक क़हक़हा ?
उससे करके दोस्ती पाला
था इक ,
हमने सचमुच आस्तीं में
अजदहा ॥
उसको है आवाज़ से नफ़्रत
बड़ी ,
उसके कानों में न गा
, मत
चहचहा ॥
पाप धोना है तो पश्चात्ताप
कर ,
सिर्फ़ गंगा–जमुना में
ही मत नहा ॥
कर गया हैराँ वो बेबुनियाद
घर ,
किस बिना पर जो ढहाए ना ढहा ?
बस सका मैं उसकी आँखों
में भी कब ,
वो हमेशा ही मेरे दिल
में रहा ॥
( क़हक़हा = अट्टहास , आस्तीं = बाँह , अजदहा = अजगर )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति