Thursday, June 29, 2017

ग़ज़ल : 234 - कर गया हैराँ.......



दर्द को चुपचाप ही हमने सहा ;
आँख से आँसू न कोई भी बहा ॥
हम जो सुनना चाहते थे उसने वो ,
ना ज़ुबाँ से औ न आँखों से कहा ॥
बुझ गए हम उसको देते देते आँच ,
वो पिघलकर भी नहीं लेकिन बहा ॥
बात तो थी फूटकर रोने की सच ,
मुँह से फूटा जाने क्यों इक क़हक़हा ?
उससे करके दोस्ती पाला था इक ,
हमने सचमुच आस्तीं में अजदहा ॥
उसको है आवाज़ से नफ़्रत बड़ी ,
उसके कानों में न गा , मत चहचहा ॥
पाप धोना है तो पश्चात्ताप कर ,
सिर्फ़ गंगा–जमुना में ही मत नहा ॥
कर गया हैराँ वो बेबुनियाद घर ,
किस बिना पर जो ढहाए ना ढहा ?
बस सका मैं उसकी आँखों में भी कब ,
वो हमेशा ही मेरे दिल में रहा ॥
( क़हक़हा = अट्टहास , आस्तीं = बाँह , अजदहा = अजगर )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, June 16, 2017

*मुक्त-मुक्तक : 871 - इश्क़ की तैयारियां



छोड़कर आसानियाँ सब 
माँगता दुश्वारियाँ वो ॥
चाहता सेहत नहीं क्यों 
चाहता बीमारियाँ वो ॥
इक पुराना बेवफ़ा बस 
भूलकर बैठा ही है इत ;
उठके उत करने लगा 
नए इश्क़ की तैयारियां वो ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...