Thursday, October 29, 2015

मुक्तक : 776 - दलदल में धँस रहा ॥



वो जानबूझ कर ही तो दलदल में धँस रहा ॥
मर्ज़ी से अपनी काँटों के जंगल में फँस रहा ॥
इस धँसने और फँसने से होगा ज़रूर उसे ,
कुछ फ़ायदा ही दर्द में वो तब तो हँस रहा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, October 25, 2015

मुक्तक : 775 - चूहे की दुम



कर दोगे मुँह से शेर के चूहे की दुम उसे ॥
होशो-हवास लूट के कर दोगे गुम उसे ॥
इक बार सिर्फ़ोसिर्फ़ हाँ बस एक बार ही ,
दिखला दो अपना हुस्न जो बेपर्दा तुम उसे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, October 24, 2015

गीत : 38 - सुए से फोड़ लें आँखें ?

जो पढ़ना चाहते हैं वैसा क्यों लिखता नहीं कोई ?
जो तकना चाहते हैं वैसा क्यों दिखता नहीं कोई ?
कि पढ़ना छोड़ ही दें या सुए से फोड़ लें आँखें ?
कोई अपनों में दिखता ही नहीं मन मोहने वाला ,
कोई मिलता नहीं पूरा हृदय को सोहने वाला ,
करें क्या शत्रु को मन भेंट दे दें , जोड़ लें आँखें ?
नहीं लगता असाधारण हमें क्यों उसका अब व्यक्तित्व ?
कड़ा संघर्ष कर जिस पर स्थापित कल किया स्वामित्व ,
दरस को जिसके मरते थे लगे अब मोड़ लें आँखें ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, October 23, 2015

मुक्तक : 774 - राह के क़ालीन



आशिक़ो-महबूब भी फटके न फिर उसके क़रीब ॥
हो गया जब शाह से वह माँगता-फिरता ग़रीब ॥
जो हुआ करते थे उसकी राह के क़ालीन सब ,
वक़्ते-आख़िर पास में उसके न दिक्खे वो हबीब ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, October 22, 2015

मुक्तक : 773 - साफ़-सुथरे ख़्वाब



सुधारता रहूँगा भूल पर मैं भूल अपनी ॥
न पड़ने दूँगा आँख में घुमड़ती धूल अपनी ॥
रखूँगा साफ़-सुथरे ख़्वाब अपने मैं ज़िंदा ,
न होने दूँगा हसरतें कभी फिज़ूल अपनी ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, October 20, 2015

मुक्तक : 772 - अति लघुकथा



अति लघुकथा विशाल उपन्यास बन गई ।।
कविता महान काव्य अनायास बन गई ।।
अभिलाष सत्य तृप्ति का था एक बूँद से ,
तृष्णा अथाह किंतु मृगी-प्यास बन गई !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, October 19, 2015

मुक्तक : 771 - लबालब ग़ुरूर था ॥



सच था कि झूठ इसपे ग़ुमाँ तो ज़ुरूर था ॥
मेरा है तू ये मुझमें लबालब ग़ुरूर था ॥
आँखें खुलीं तो औंध गिरा आस्मान से,
ख़ाली हुआ जो मुझमें छलकता सुरूर था ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, October 16, 2015

मुक्तक : 770 - चमचम अमीराना ॥




दरो-दीवार चाँदी की हों ,छत सोने मढ़ी माना ॥
भले रिसता हो कोने-कोने से चमचम अमीराना ॥
जहाँ के सुन लतीफ़े , मस्ख़रे तक कर भी बाशिंदे -
नहीं हँसते , उसे मैं घर नहीं ; बोलूँ अज़ाख़ाना ॥
( अमीराना=धनाढ्यता ,लतीफ़े=चुट्कुले ,मसख़रे=विदूषक ,तक=देख ,बाशिंदे=निवासी ,अज़ाख़ाना=शोक गृह )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, October 11, 2015

मुक्तक : 769 - ज़िंदगी काफ़ूर सी.....




आस्माँ से गोल पत्थर जैसी गिरती है ॥
फ़र्श पर बोतल के टुकड़ों सी बिखरती है ॥
पूछते हो तो सुनो सच आजकल अपनी
ज़िंदगी काफ़ूर सी उड़ती गुजरती है ॥
( काफ़ूर = कपूर )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, October 10, 2015

मुक्तक : 768 - अब तो लाज़िम है



सर्द तनहाई से क्या गर्मागर्म महफ़िल से ॥
क्या तलातुम से और क्या पुरसुकून साहिल से ॥
अब तो लाज़िम है , नागुज़ीर है , ज़रूरी है ;
घर से क्या तुझको मैं अभी निकाल दूँ दिल से ॥
( सर्द तनहाई=ठंडा एकान्त ,महफ़िल=सभा ,तलातुम=बाढ़ ,पुरसुकून साहिल=शांत किनारा , लाज़िम,नागुज़ीर,ज़रूरी=अनिवार्य )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...