Wednesday, March 30, 2016

मुक्तक : 819 - कोयल की कूक



कोयल की कूक कपि की , किट-किट भी मुझमें है ॥
मुझमें धड़ाम भी तो , चिट-चिट भी मुझमें है ॥
किरदार से सुनो हूँ , शफ़्फाक हंस मैं ,
हालात के मुताबिक़ , गिरगिट भी मुझमें है ॥
( किरदार = चरित्र , शफ़्फाक = उजला , हालात= परिस्थिति  )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, March 29, 2016

183 : ग़ज़ल - इश्क़ में सच हो फ़ना



इश्क़ में सच हो फ़ना हम शाद रहते हैं ॥
लोग तो यों ही हमें बरबाद कहते हैं ॥
आँसुओं का क्या है जब मर्ज़ी हो आँखों से ,
हो ख़ुशी तो भी लुढ़क गालों पे बहते हैं ॥
मार से कब टूटते इंसाँ हथौड़ों की ,
वो तो अपने प्यार की ठोकर से ढहते हैं ॥
जो हों ज़ख़्मी फूल से भी , वो भी पत्थर की ,
सख़्त मज्बूरी में हँस-हँस चोट सहते हैं ॥
सूर्य से भी हम कभी पाते थे ठंडक अब ,
हिज़्र में तेरे सनम चंदा से दहते हैं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, March 28, 2016

182 : ग़ज़ल - चोली - घाघरा



आज ख़ालीपन मेरा पूरा भरा है ॥
अब कहीं पीला नहीं है बस हरा है ॥
जिसपे मैं क़ुर्बान था आग़ाज़ से ही ,
वह भी आख़िरकार मुझ पर आ मरा है ॥
उसने मुझको तज के ग़ैर अपना लिया जब ,
मैंने भी अपना लिया तब दूसरा है ॥
कुछ न पाया मैंने की हासिल मोहब्बत ,
ज़िंदगी में इससे बढ़कर क्या धरा है ?
बन न पाया मैं सहारा उसका लेकिन ,
अब भी वो संबल है मेरा आसरा है ॥
आदमी जाँ को बचाने कुछ भी खा ले ,
शेर ने कब भूख में तृण को चरा है ?
भूल है मर्दों से कम उसको समझना ,
उसने बेशक़ पहना चोली - घाघरा है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, March 27, 2016

कविता : मैं हूँ विरह




मैं हूँ विरह मधुमास नहीं ॥
तड़पन हूँ नट , रास नहीं ॥
मुझको दुःख में पीर उठे ,
हँसने का अभ्यास नहीं ॥
उनके बिन जीना _मरना ,
क्यों उनको आभास नहीं ?
उनका हर आदेश सुनूँ ,
पर मैं उनका दास नहीं ॥
दिखने में तो हैं निकट -निकट ,
दूर - दूर तक पास नहीं ॥
भव्य हवेली तो हैं वो ,
गेह नहीं आवास नहीं ॥
इष्ट हैं वो मेरे विशिष्ट ,
मैं उनका कुछ ख़ास नहीं ॥

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, March 25, 2016

181 : ग़ज़ल - ज़हर ला पिलवा



एक तूने क्या दिया धोख़ा मुझे ?
दोस्त सब लगने लगे ख़तरा मुझे ॥
मैंने दी सौग़ात में बंदूक तुझको ,
तूने गोली से दिया उड़वा मुझे ॥
मैं बढ़ाता ही रहा शुह्रत तेरी ,
और तू करता रहा रुस्वा मुझे ॥
तुझ तलक आने को मैं मरता रहा ,
और तू करता रहा चलता मुझे ॥
सब दिया पर क्या दिया कुछ ना दिया ,
कुछ न देता सिर्फ़ दिल देता मुझे ॥
क़र्ज़ जो तुझको दिये ले क़र्ज़ ख़ुद ,
माँगता हूँ खा तरस लौटा मुझे ॥
हो चुकी ज़ुल्मो सितम की इंतिहा ,
इक करम कर ज़ह्र ला पिलवा मुझे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, March 24, 2016

मुक्तक : 818 - मुझपे करना ज़ुल्म





मुझपे करना ज़ुल्म सारे , रात-दिन करना जफ़ा ॥
खुश न रहना मुझसे चाहे रहना तुम हरदम ख़फ़ा ॥
गालियाँ भी जितना जी चाहे मुझे बकना मगर ,
इक गुज़ारिश है कभी कहना मुझे मत बेवफ़ा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, March 23, 2016

मुक्तक : 817 - अबके अवसर



अबके अवसर ना छोडूँगा यार लगाऊँगा ॥
गिन-गिन कर इक बार नहीं सौ बार लगाऊँगा ॥
कबसे मंशा है तुझको अपने रँग रँगने की ,
इस होली में तुझ पर रँग-भण्डार लगाऊँगा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, March 21, 2016

मुक्तक : 816 - जीर्ण - शीर्ण है



भग्न है जीर्ण - शीर्ण है निपट निरालय है ॥
मन मेरा क्या है एक दुःख का संग्रहालय है ॥
कष्ट की खाई का कहीं पे इसमें है डेरा ,
इसमें पीड़ा का बस रहा कहीं हिमालय है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, March 19, 2016

विश्वासघात

                 
विश्वासघात को लेकर सबके अपने-अपने व्यक्तिगत अनुभव हैं किन्तु एक बात सर्वव्यापी है  कि इसका आघात सबके लिए अकस्मात , अनपेक्षित और असहनीय होता है , फिर चाहे वह बड़ा हो या छोटा धोखा । और तब तो यह और भी पीड़ादायी हो जाता है जबकि यह अपनों अर्थात दोस्तों या सगे संबंधियों द्वारा किया गया हो । प्रश्न यह है कि क्या विश्वासघात एक अवश्यंभावी अनुभव है ? और यदि है तो क्या किया जाए ? जो यह कहते है कि किसी पर विश्वास किया ही न जाए तो मुझे यह बात इसलिए नहीं जँचती क्योंकि फिर जीवन नीरस हो जाएगा । अतः विश्वास तो रखना ही पड़ता है और जब अपनों पर भी विश्वास न रखा जाएगा तो फिर सामाजिक सम्बन्धों का क्या अर्थ रह जाएगा ? विश्वास जीवन की अनिवार्य शर्त है । आए दिन बैलगाड़ी से लेकर हवाईजहाज तक की भीषण दुर्घटनाएँ होती रहती हैं तो क्या हम सफर करना छोड़ दें ? सतर्कता अवश्यमेव वांछित है । धोखा देना और धोखा खाना आजन्म चलता रहेगा और यह मानकर ही हम  विश्वासघात की पीड़ा से उबर सकते हैं । क्योंकि मानव स्वभाव को देखते हुए यह एक आश्चर्यविहीन और सामान्य बात लगती है । सदियों से इश्क़ में नाकाम रहने वालों और धोखा खाने वालों के किस्से सुन सुन कर भी लोग मोहब्बत करना नहीं छोडते क्यों / मैं यही कहना चाहता हूँ कि हमें इस धोखाधड़ी , बेवफ़ाई को स्वीकारना होगा क्योंकि धोखे के भावी डर से आप संभाव्य मनचाहे इश्क़ का परित्याग नहीं कर सकते और जब ओखली में सिर दे ही दिया जाता है तो मूसलों की मार भी सहन कर ही ली जाती है । धोखा यदि अपेक्षित मान लिया जाए तो सहना आसान हो जाता है जैसे कि किसी अत्यंत प्रिय किन्तु दीर्घकाल से असाध्य रोग से पीड़ित बिस्तर पर पड़े व्यक्ति की मृत्यु का आघात । अकस्मात और अनपेक्षित घटना हमें आश्चर्यचकित अथवा शोकविह्वल करती है किन्तु अपेक्षित अथवा सुनिश्चित घटनाओं से हम अधिक प्रभावित नहीं होते । एक बात और स्पष्ट करना चाहूँगा कि अविश्वास रखना और धोखे की संभावना की स्वीकृति का अर्थ यह हरगिज़ नहीं है कि धोखा होकर ही रहेगा अपितु केवल यही है कि तब यह सहज सह्य हो जाएगा । फिर भी मैं बार बार यही चाहूँगा कि विश्वास करना पड़ता है , करना चाहिए अन्यथा जीवन शुष्क बन जाएगा ।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, March 13, 2016

मुक्तक : 815 - सायों की तरह से ॥



भूले से भूखे शेर से गायों की तरह से ॥
घनघोर अंधकार में सायों की तरह से ॥
लगता ज़रूर अजीब है लेकिन है हक़ीक़त ,
मिलता है अपनों से वो परायों की तरह से ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, March 7, 2016

मुक्तक : 814 - नर्म बिस्तर पर


नर्म बिस्तर पर बदलते करवटें रातें हुईं ॥
कहने को उनसे कई लंबी मुलाकातें हुईं ॥
कब बुझाने प्यास को या सींचने के वास्ते ?
सिर्फ़ सैलाबों के मक़सद से ही बरसातें हुईं ॥

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, March 5, 2016

मुक्तक : 813 - गुसल करते हैं ॥




ख़ूब आहिस्ता चुपके-चुपके सँभल करते हैं ॥
अपनी मर्ज़ी से अपनी ज़ीस्त अजल करते हैं ॥
एक बोतल शराब हम तो कभी पी झूमें ,
वो तो इंसाँ के खूँ से रोज़ गुसल करते हैं ॥
( आहिस्ता=धीरे , ज़ीस्त=जीवन ,अजल=मृत्यु ,गुसल=स्नान )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, March 3, 2016

ग़ज़ल : 180 - क्यों मैं सोचूँ ?



क्यों मैं सोचूँ दौर मेरा थम गया है ?
खौलता लोहू रगों में जम गया है ॥
खिलखिलाते उठ रहे हैं सब वहाँ से ,
जो भी आया वो यहाँ से नम गया है ॥
इक शराबी से ही जाना राज़ था ये ,
मैक़शी से कब किसी का ग़म गया है ?
चोरियाँ चुपचाप ही करते हैं सब ही ,
दिल चुराकर वो मेरा छम-छम गया है ॥
इसमें क्या हैरानगी की बात जो ,
शह्र में जाकर गँवार इक रम गया है ?
उसका जीने की तमन्ना में ही सचमुच ,
जितना भी बाक़ी बचा था दम गया है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, March 2, 2016

मुक्तक : 812 - कब मिटाती हैं मुझे ?



ग़मज़दा हरगिज़ नहीं ये मुझको करतीं शाद हैं ॥
कब मिटातींं हैं मुझे ? करतीं ये बस आबाद हैं ॥
कौन कहता है कि मेरा रहनुमा कोई नहीं ?
मुझको मेरी ठोकरें सबसे बड़ी उस्ताद हैं ॥
( शाद=प्रसन्न ,रहनुमा=पथप्रदर्शक ,उस्ताद=गुरु )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...