Sunday, August 30, 2015

कविता : विश्वसुंदर


उस घर में
संसार भर में
दूसरा कोई
इससे अधिक
किन्तु विश्वसुंदर
अतुल्य फूल
नहीं खिला
किन्तु मैं आतुर हूँ 
उसकी तुलना करने को 
अतः
अनवरत सोच में पड़ा हूँ
कि किसकी उपमा दूँ उसे
चाँद , सूरज या अन्य कोई और
और तभी आता है 
रह रह के 
मन में एक विचार
और बुद्धि करती है 
मस्तिष्क को आदेश
यह सुनिश्चित करने का
कि वह
लगता है निःसन्देह
केवल और केवल 
तथा सर्वथा 
एवं सम्पूर्ण रूप से
तुम्हारे मुखड़े जैसा ।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, August 29, 2015

मुक्तक : 759 - संदल बना दो तुम ॥




[ चित्रांकन :डॉ. हीरालाल प्रजापति ]

सुलगता मन-मरुस्थल इक हरा जंगल बना दो तुम ॥
नुकीली नागफणियाँ फूलते संदल बना दो तुम ॥
ठिठुरते-काँपते , नंगे-धड़ंगे मेरे जीवन का ,
तुम्हारा गर्म–ऊनी प्यार अब कंबल बना दो तुम ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, August 26, 2015

मुक्तक : 758 - फ़िक्र अगर होती ॥


तुझको मेरे दर्द की सच फ़िक्र अगर होती ॥


ना सही पूरी ज़रा सी ही मगर होती ॥


है अभी तक बेअसर मुझ पर दवा जो वो ,


तू पिलाती तो यक़ीनन कारगर होती ॥


-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, August 23, 2015

मुक्तक : 757 - कोहे नूर था ॥




दिन-रात अपनी आँखों के वो हुजूर था ॥
ना जाने क्यों समझ से बाहर था दूर था ?
कंकड़ ही जान हमने ठुकरा दिया उसे ,
कुछ और वो नहीं था , इक कोहे नूर था ॥
(हुजूर=सामने, कोहे नूर=कोहिनूर हीरा )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Friday, August 21, 2015

मुक्तक : 756 - तर-बतर आँखें ?





ढूँढती कुछ इधर-उधर आँखें ॥
लब सिले चीखतीं मगर आँखें ॥
किसको खोया कि एक पत्थर की ,
ख़ुश्क मौसम में तर-बतर आँखें ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति




Thursday, August 20, 2015

मुक्तक : 755 - बारात में हूँ मैं !!




तुम न जानोगे कि किन 
हालात में हूँ मैं ?
गिन नहीं पाओगे जिन 
आफ़ात में हूँ मैं !!
चल रहा हूँ जिस तरह से 
तुम न समझोगे ,
हूँ जनाज़े में या फ़िर 
बारात में हूँ मैं !!
( हालात=परिस्थितियाँ ,आफ़ात=मुसीबतें ,जनाज़े=मैयत )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति



Wednesday, August 19, 2015

मुक्तक : 754 - घिसी-पिटी, ज़बीं ॥



[ चित्रांकन : डॉ. हीरालाल प्रजापति ]

बदसूरती नज़र कहीं भी आएगी नहीं ॥
चिकनी लगेगी खुरदुरी घिसी-पिटी, ज़बीं ॥
चेचक , मुँहासे , मस्से कुछ नज़र न आएँगे ,
चढ़कर के आस्माँ से झाँकिए अगर ज़मीं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, August 18, 2015

मुक्तक : 753 - सदाएँ रोज़ आतीं हैं ?


[ चित्रांकन : डॉ. हीरालाल प्रजापति ]

हौले - हौले नींद से जैसे जगाती हैं ॥
जानता हूँ वो मुझे ही तो बुलाती हैं ॥
पंख होते तो मैं फ़ौरन ही न सुन लेता ,
आस्माँ से जो सदाएँ रोज़ आतीं हैं ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 752 - ग़मज़दा कर दें ॥






मस्जिदों, कुछ बुतकदों को मैकदा कर दे ॥
कुछ फ़रिश्तों को ख़तरनाक इक ददा कर दे ॥
ख़ुशमिजाज़ आशिक़ को हद से भी ज़ियादा जब ,
इश्क़ में नाकामयाबी ग़मज़दा कर दे ॥
( बुतकदों=मन्दिरों, मैकदा=मदिरालय, ददा=दरिंदा )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति




Monday, August 17, 2015

कविता : किसलिए जिज्ञासा ?


[ चित्रांकन : डॉ. हीरालाल प्रजापति ] 

दुश्चरित्र को प्राप्त सौंदर्य
या ब्रह्मचारी की कुरूपता ,
ज्ञानी की निर्धनता
या मूर्ख की अमीरी ,
दुर्बल का आक्रोश
अथवा बलवान का शांतत्व ,
अंधे के हाथ लगने वाली बटेर
या देखते ही देखते आँखों से चोरी हो जाने वाला काजल ,
प्यासों के समक्ष फैले रेगिस्तान
अथवा तृप्तों के आगे पसरी मधुशालाएँ ,
गाय की थाली में मांस
या शेर को परोसी गई घास ,
पंखहीन को आकाश छूने के लक्ष्य
और केंचुए को पृथ्वी नापने का दण्ड ,
न जाने किस अदृश्य के निर्देश पर
किन्तु कहीं न कहीं
घट रहा है नित्य ।
प्रश्न यह कि क्यों ?
प्रश्न यह कि कब तक ?
प्रश्न यह कि क्या यह सब
प्रायोजित अथवा पूर्व निर्धारित है ?
प्रश्न यह कि क्या ये विडंबनाएँ हैं ?
प्रश्न यह कि क्या ये सांयोगिक विरोधाभास हैं ?
प्रश्न यह कि क्या यह पक्षपात है अथवा अन्याय ?
प्रश्न यह कि क्या कोई उपाय मिल सकेगा
इन विसंगतियों को दूर करने का
उक्त तमाम प्रश्नों के सटीक उत्तर मिल जाने के बाद भी ?
यदि नहीं ,
तो फिर कैसा आश्चर्य ?
किसलिए जिज्ञासा ?
जब यही सब चलते रहना है ।
अतः
''दिल के खुश रखने को
ग़ालिब ख़याल अच्छा है'' की तर्ज़ पर
कुछ ठोस उपाय :
साक्षी भाव रखें ।
मशीन हो जाएँ ।
हलाल होता हुआ मुर्गा या बकरा नहीं
कटती हुई भिण्डी अथवा
उबलता हुआ आलू हो जाएँ ।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Sunday, August 16, 2015

मुक्तक : 751 - विलोम ?




है स्वाद में वो विष-सम , प्रभविष्णुता में सोम ॥
ऊपर से लौह सदृश , नीचे विशुद्ध मोम ॥
उद्देश्य गुप्त होगा या उच्च अन्यथा ,
अन्तः से बाह्य को क्यों रखता वो यों विलोम ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Saturday, August 15, 2015

मुक्तक : 750 - रो-रो पड़ता हूँ ॥



भीषण द्वेष-जलन निज मन पर ढो-ढो पड़ता हूँ ॥
घोर दुखी , अत्यंत उदास मैं हो-हो पड़ता हूँ ॥
कोई युगल विचरण करता जब यों ही विहँस पड़ता ,
अपने एकाकी होने पर रो-रो पड़ता हूँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 


मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...