दुश्चरित्र को प्राप्त सौंदर्य
या ब्रह्मचारी की
कुरूपता ,
ज्ञानी की निर्धनता
या मूर्ख की अमीरी ,
दुर्बल का आक्रोश
अथवा बलवान का शांतत्व ,
अंधे के हाथ लगने वाली बटेर
या देखते ही देखते
आँखों से चोरी हो जाने वाला काजल ,
प्यासों के समक्ष फैले
रेगिस्तान
अथवा तृप्तों के आगे
पसरी मधुशालाएँ ,
गाय की थाली में मांस
या शेर को परोसी गई घास
,
पंखहीन को आकाश छूने के
लक्ष्य
और केंचुए को पृथ्वी
नापने का दण्ड ,
न जाने किस अदृश्य के
निर्देश पर
किन्तु कहीं न कहीं
घट रहा है नित्य ।
प्रश्न यह कि क्यों ?
प्रश्न यह कि कब तक ?
प्रश्न यह कि क्या यह
सब
प्रायोजित अथवा पूर्व
निर्धारित है ?
प्रश्न यह कि क्या ये
विडंबनाएँ हैं ?
प्रश्न यह कि क्या ये
सांयोगिक विरोधाभास हैं ?
प्रश्न यह कि क्या यह
पक्षपात है अथवा अन्याय ?
प्रश्न यह कि क्या कोई
उपाय मिल सकेगा
इन विसंगतियों को दूर
करने का
उक्त तमाम प्रश्नों के
सटीक उत्तर मिल जाने के बाद भी ?
यदि नहीं ,
तो फिर कैसा आश्चर्य ?
किसलिए जिज्ञासा ?
जब यही सब चलते रहना है
।
अतः
''दिल के खुश रखने को
ग़ालिब ख़याल अच्छा है'' की
तर्ज़ पर
कुछ ठोस उपाय :
साक्षी भाव रखें ।
मशीन हो जाएँ ।
हलाल होता हुआ मुर्गा
या बकरा नहीं
कटती हुई भिण्डी अथवा
उबलता हुआ आलू हो जाएँ
।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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