Sunday, January 31, 2016

मुक्तक : 802 - नग्नाटक ॥




दे चुका जीवन का मैं हर मूल्य हर भाटक ॥
जबकि मुझ पर खुल रहा अब मृत्यु का फाटक ॥
वस्त्र - आभूषण से रहता था लदा कल तक ,
आज गलियों में मैं घूमूँ बनके नग्नाटक ॥
( भाटक=किराया ,फाटक=द्वार ,नग्नाटक=सदा नंगा घूमने वाला साधु )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, January 27, 2016

मुक्तक : 801 - नश्वर



कौन यह जानता नहीं कि काया नश्वर है ?
सबका जीवन यहाँ पे जल का बुलबुला भर है ॥
स्वप्न फिर भी वो जन्म-जन्म के सँजोता यों ,
जैसे अमृत की आया मटकियाँ गुटक कर है ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, January 26, 2016

मुक्तक : 800 - ठंडों में गरम कम्बल देना ॥




जब प्यास से गर्मी में तड़पूँ ,
तब शीतल-शीतल जल देना ॥
तुम भेंट के इच्छुक हो तो मुझे ,
ठंडों में गरम कम्बल देना ॥
उपहार वही मन भाता है जो ,
हमको आवश्यक होता है ;
अतएव मेरी तुम चाह समझ -
वह आज नहीं तो कल देना ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Sunday, January 24, 2016

गीत : 41 - मैं क्यों कवि बन बैठा ?




कई प्रश्न स्वयं के अनुत्तरित –
इक यह कि मैं क्यों कवि बन बैठा ?
बाहर चहुंदिस वह चकाचौंध ।
आकाश-तड़ित सी महाकौंध ।
प्रत्येक उजालों का रागी ,
जुगनूँ तक पे सब रहे औंध ।
यद्यपि मैं पुजारी था तम का ,
क्या सोच के मैं रवि बन बैठा ?
नकली से सदा अति घृणा रखी ।
परछाईं स्वयं की भी न लखी ।
झूठों से बराबर बैर रहा ,
कभी भूल न पाप की वस्तु चखी ।
क्या घटित हुआ कि मैं जीवित ही ,
कहीं मूर्ति कहीं छवि बन बैठा ?
कब धर्म पे था विश्वास मुझे ?
कब होम-हवन था रास मुझे ?
जप-तप-पूजन लगते थे ढोंग ,
लगते थे व्यर्थ उपवास मुझे ।
क्यों यज्ञ में तेरी सफलता के ,
मैं स्वयं पूर्ण हवि बन बैठा ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, January 20, 2016

मुक्तक : 799 - क़िस्मत छलेगी प्रिये ॥






 आज फिर मुझको क़िस्मत छलेगी प्रिये ॥
शुष्क वस्त्रों को गीला करेगी प्रिये ॥
भूल मैं जो गया आज छतरी कहीं ,
आज बरसात होकर रहेगी प्रिये ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति



Sunday, January 17, 2016

ग़ज़ल : 179 - पिलाने का हुनर ॥



प्यास को पानी बिना हमने बुझाने का हुनर ॥
ग़मज़दा रह-रह के सीखा मुस्कुराने का हुनर ॥
पाके खो देने के फ़न में सब ही हैं माहिर यहाँ ,
इश्क़ ने हमको बताया खो के पाने का हुनर ॥
सब ही पीते हैं शराबें ढालकर इक जाम में ,
उसने आँखों से दिखाया है पिलाने का हुनर ॥
सब कमाना चाहते हैं हाँ मगर अफ़्सोस ये ,
सब को कब आता है दुनिया में कमाने का हुनर ?
मत कुछ ऐसा कर कि अपने मानकर चल दें बुरा ,
रूठना आसाँ है मुश्किल है मनाने का हुनर ॥
अब मोहब्बत की तिजारत में है लाज़िम सीखना ,
बेवफ़ाओं को तहेदिल से भुलाने का हुनर ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, January 13, 2016

मुक्तक : 798 - कौआ समझते थे ॥



चंद्रमा को एक जुगनूँ सा समझते थे ॥
श्वेतवर्णी हंस को भँवरा समझते थे ॥
आज जाना जब हुआ वो दूर हमसे सच ,
स्वर्ण-मृग को हम गधे ; कौआ समझते थे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Tuesday, January 12, 2016

मुक्तक : 797 - चलने की तैयारियाँ ॥




ख़ुद ख़रीदी हैं जाँसोज़ बीमारियाँ ॥
हो रहीं पुख्ता चलने की तैयारियाँ ॥
तब पता ये चला फुँक चुका जब जिगर ,
जाँ की क़ीमत पे कीं हमने मैख़्वारियाँ ॥
( जाँसोज़=जाँ को जलाने वाली ,मैख़्वारियाँ=शराबखोरी )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Monday, January 4, 2016

ग़ज़ल : 178 - नाच मटक-टूट गए ॥



तुम जनाज़ों को काँधा देते सटक-टूट गए ।।
हम बरातों में नाच-नाच मटक-टूट गए ।।1।।
हम जो लोहा थे मेरी जान वो शीशे की तरह ,
तेरे जाने के बाद फूट चटक-टूट गए ।।2।।
मंज़िलें तेरी रहनुमाई में जो की थीं फतह ,
अपनी अगुवाई में वो भूल भटक-टूट गए ।।3।।
भूलकर भी कभी नहीं थे जो बीमार हुए ,
इश्क़ में पड़ बुरी तरह से झटक-टूट गए ।।4।।
मुँह से गाली ख़ुद अपने बच्चों के सुन अपने लिए ,
सर को पत्थर पे नारियल सा पटक-टूट गए ।।5।।
पूरा हाथी निकलने तक वो सलामत थे मगर ,
इक अकेली गई जो पूँछ अटक-टूट गए ।।6।।
हाँ , ज़मीं पर भी पैर रखने जगह जब न मिली ,
लोग चमगादड़ों के जैसे लटक-टूट गए ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, January 3, 2016

ग़ज़ल : 177 - छूट-छूट के ॥

      
    

    जो दिल में मेरे ग़म भरा है कूट-कूट के
     रो-रो उसे निकाल दूँगा फूट-फूट के ॥1।।
     मेरा तो क्या किसी का हो सके न जो कभी ,
     मेरा उसी से दिल लगा रे टूट-टूट के ॥2।।
     मुश्किल से हाथ आए थे जो मुझको काट-काट ,
     सब फड़फड़ा उड़े वो तोते छूट-छूट के ॥3।।
     जो-जो जमा किया था बैरी सब तो ले गया ,
     कुछ माँग-माँग के तो कुछ को लूट-लूट के ॥4।।
     मत पूछ जबसे मैं जुड़ा हूँ उससे किस क़दर ,
     करता हूँ एक तरफ़ा प्यार टूट-टूट के ?5।।
     कब तक जिऊँगा रोज़-रोज़ इस तरह अगर ,
     याद उसकी आएगी गले को घूट-घूट के ?6।।
              -डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, January 1, 2016

मुक्तक : 796 - उड़ते अपनी शान से ॥




आस्माँ पर सब परिंदे उड़ते अपनी शान से ॥
मछलियाँ पानी में तैरें इक अलग ही आन से ॥
दौड़ें , कूदें , नृत्य भी इंसान के हैं केंचुवी ,
चल सकेगा क्या कभी ये पूरे इत्मीनान से ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...