Sunday, January 17, 2016

ग़ज़ल : 179 - पिलाने का हुनर ॥



प्यास को पानी बिना हमने बुझाने का हुनर ॥
ग़मज़दा रह-रह के सीखा मुस्कुराने का हुनर ॥
पाके खो देने के फ़न में सब ही हैं माहिर यहाँ ,
इश्क़ ने हमको बताया खो के पाने का हुनर ॥
सब ही पीते हैं शराबें ढालकर इक जाम में ,
उसने आँखों से दिखाया है पिलाने का हुनर ॥
सब कमाना चाहते हैं हाँ मगर अफ़्सोस ये ,
सब को कब आता है दुनिया में कमाने का हुनर ?
मत कुछ ऐसा कर कि अपने मानकर चल दें बुरा ,
रूठना आसाँ है मुश्किल है मनाने का हुनर ॥
अब मोहब्बत की तिजारत में है लाज़िम सीखना ,
बेवफ़ाओं को तहेदिल से भुलाने का हुनर ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (18-01-2016) को "देश की दौलत मिलकर खाई, सबके सब मौसेरे भाई" (चर्चा अंक-2225) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...