Thursday, July 31, 2014

मुक्तक : 593 - यूँ ही सी नहीं कोई


यूँ ही सी नहीं कोई मुसीबत से सामना ॥
करता हूँ नई रोज़ अज़ीयत से सामना ॥
यूँ भी न समझ दर्द उठाता हूँ हो खफ़ा ,
करता हूँ तह-ए-दिल से , बीअत से सामना ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, July 30, 2014

मुक्तक : 592 - इक बार हमने सचमुच



इक बार हमने सचमुच इतनी शराब पी थी ॥
इक घूँट में दो प्यालों जितनी शराब पी थी ॥
यारों का दोस्ती की सर पर क़सम था धरना ,
फिर होश ना रहा कुछ कितनी शराब पी थी ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, July 29, 2014

मुक्तक : 591 - घूँट दो घूँट भरते भरते


घूँट दो घूँट भरते भरते फिर पूरा भर भर रिकाब पीने लगे ॥
आबे ज़मज़म के पीने वाले हम धीरे धीरे शराब पीने लगे ॥
दर्दो तक्लीफ़ के पियक्कड़ थे पर तेरा हिज्रे ग़म न झेल सके ,
पहले पीते थे बाँधकर हद को बाद को बेहिसाब पीने लगे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, July 27, 2014

149 : ग़ज़ल - मुझे ग़म देने वाले


मुझे ग़म देने वाले अब ख़ुशी तुम भी न पाओगे ॥
मुझे यूँ मारकर तुम भी ज़ियादा जी न पाओगे ॥
किसी की तड़पनों की दिल्लगी तुमने उड़ाई है ,
मगर हर दिल्लगी इतनी कभी सस्ती न पाओगे ॥
दिलों को तोड़ने का खेल अब तुम बंद भी कर दो ,
किसी की आह लेकर हर घड़ी मस्ती न पाओगे ॥
मेहरबाँ वक़्त है उड़ लो ख़फ़ा हो जाए फिर क्या हो ,
तरस जाओगे चलने को कहीं धरती न पाओगे ॥
मैं कर दूँगा तुम्हें मज्बूर जीने के लिए इतना ,
कि मरना चाहकर भी ज़ह्र को तुम पी न पाओगे ॥
ये माना शह्र बेहद ख़ूबसूरत है तुम्हारा ये ,
मगर बेशक़ हमारे जैसी भी बस्ती न पाओगे ॥
सिला यूँ ही बुरा मिलता रहा अच्छाइयों का गर ,
यक़ीनन हममें आइंदा तुम अच्छाई न पाओगे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, July 25, 2014

148 : ग़ज़ल - उसका जीवन सुधर गया


उसका जीवन सुधर गया होता ॥
मरने से कुछ ठहर गया होता ॥
तैरना जानता तो बिन कश्ती -
और पर बिन भी तर गया होता ॥
मुझसे वो बोलते तो मुश्किल क्या ,
ग़ैर मुमकिन भी कर गया होता ॥
ज़िंदगी से न तंग होता तो ,
मौत से मैं भी डर गया होता ॥
मैं भी परदेश से दिवाली पर ,
काश ! होता तो घर गया होता ॥
पोल उसकी न खुल गई होती ,
क्यों वो दिल से उतर गया होता ?
तह में सूराख़ उस घड़े की था ,
वर्ना बारिश में भर गया होता ॥
ब्रह्मचारी था वर्ना वो तुझपे ,
तुझको तकते ही मर गया होता ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, July 24, 2014

147 : ग़ज़ल - ग़ज़लों में आँसू


ग़ज़लों में आँसू बोता हूँ ॥
लेकिन तुझको ना रोता हूँ ॥
तेरी भारी भरकम यादें ,
फूलों सी दिल में ढोता हूँ ॥
तेरा नाम भजन है मुझको ,
मैं उसका रट्टू तोता हूँ ॥
इक तेरा क्या हो बैठा मैं ,
और किसी का कब होता हूँ ?
नींद नहीं आती है मुझको ,
सोने को बेशक़ सोता हूँ ॥
तू मुझमें गुम शायद होता ,
मैं तुझमें ख़ुद को खोता हूँ ॥
ग़म में डूबा रहकर भी मैं ,
मै में लगाता कब गोता हूँ ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, July 23, 2014

मुक्तक : 590 – मुझपे ज़ाहिर न कभी


मुझपे ज़ाहिर न कभी क्यों ये अपनी ख़्वाहिश की ?
हक़ से क्यों हुक़्म सुनाया न क्यों गुज़ारिश की ?
शर्म क्यों आयी तुझे जान माँगने में मेरी ?
क़त्ल की क्यों ऐ मेरी जान तूने साज़िश की ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, July 22, 2014

मुक्तक : 589 - लिए उड़ानों की हसरतें


लिए उड़ानों की हसरतें जंगलों में पैदल सफ़र करें ॥ 
हुक़ूमतों की लिए तमन्ना ग़ुलामियों में बसर करें ॥ 
न जाने ख़ुद ख़ताएँ हैं या नसीब की चालबाज़ियाँ ,
कि हम तमन्नाई क़हक़हों के हमेशा रोना मगर करें ॥ 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

146 : ग़ज़ल - इतना जिगर फ़िगार


इतना *जिगर फ़िगार हूँ ॥
रोता मैं ज़ार-ज़ार हूँ ॥
तड़पे न वो मुझे मगर ,
मैं उसको बेक़रार हूँ ॥
वो बुझती शम्अ है तो क्या ?
मैं ज़िंदा इक शरार हूँ ॥
अहमक़ बनूँ मैं जानकर ,
वैसे मैं होशियार हूँ ॥
हूँ दोस्त को तो गुल मगर ,
दुश्मन को भी न ख़ार हूँ ॥
उसके लिए मैं सिर्फ़ इक ,
सीढ़ी या रहगुज़ार हूँ ॥
नज़रों से गिर गया तो क्या ?
दिल में अभी शुमार हूँ ॥
 दिखता नहीं तो उसको ये
लगता कि मैं फ़रार हूँ ॥
बस मक़्बरा वो ताज सा ,
मैं पीर की मज़ार हूँ ॥
ज़ख़्मी *उक़ाब हूँ तो क्या
मैं साँप का शिकार हूँ ?
( *जिगर फ़िगार=भग्न हृदय * उक़ाब =गरुड़ )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 588 - बस उछल-कूद



बस उछल-कूद और गंदे नाच गाने ॥
हर तरफ़ बेखौफ़ बढ़ते नंगियाने ॥
कौन सी तहज़ीब का ये दौर आया ,
कहाँ ले जा रहा कोई न जाने ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, July 21, 2014

मुक्तक : 587 - दिन को कह दे रात


दिन को कह दे रात कोई रात लगती है ॥
सूखे को बरसात तो बरसात लगती है ॥
हमको जो सुनना अगर कह दे वही कोई ,
झूठ भी हो वो तो सच्ची बात लगती है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 586 - ज़िन्दगी यूँ ही ग़मे


ज़िन्दगी यूँ ही ग़मे गेती की मारी है ॥
जिस्म भी तक्लीफ़ से हल्कान भारी है ॥
उसको चारागर भी चाहेंं ज़ह्र देना पर ,
उनपे भी क़ानून की तलवार तारी है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, July 20, 2014

मुक्तक : 585 - मुझे तो तेरी तबीयत



( चित्र Google Search से साभार अवतरित )

मुझे तो तेरी तबीअत ख़राब लगती है ।।
मेरी दवा है जो तुझको शराब लगती है ।।
हलक़ उतरते ही जब ये दिमाग़ पर चढ़ती ,
हयाते ख़ार भी गुल--गुलाब लगती है ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 584 - हैरतो ताज्जुब ! गजब


हैरतो ताज्जुब ! गजब दोनों की क़िस्मत है ।।
वरना जादू या किरिश्मा या करामत है ।।
नोक पे काँटों की फूला झूमे गुब्बारा ,
पत्थरी बारिश में आईना सलामत है ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, July 19, 2014

145 : ग़ज़ल - बताशे ख़ुद को


बताशे ख़ुद को या मिट्टी के ढेले मान लेते हैं ।।
ज़रा सी बारिशों में लोग छाते तान लेते हैं ।।1।।
कई होते हैं जो अक़्सर ज़माने को दिखाने को ,
नहीं बनना है जो बनने की वो ही ठान लेते हैं ।।2।।
मुसाफ़िर कितने ही कितनी दफ़ा आराम लें रह में ,
कुछ इक ही मंज़िलों पर भी न इत्मीनान लेते हैं ।।3।।
कई देखे हैं जो लेते नहीं *इमदाद छोटी भी ,
वही ख़ुद्दार मौक़े पर बड़े एहसान लेते हैं ।।4।।
*दियानतदार-ओ-दींदार सच्चे , दुश्मनों का भी
कभी नाँ भूलकर भी दीन-ओ-ईमान लेते हैं ।।5।।
(*इमदाद=सहयोग *दियानतदार=सत्यनिष्ठ *दींदार=धर्मनिष्ठ )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 583 - हे शिव जो जग में है



हे शिव जो जग में है अशिव तुरत निवार दो ।।
परिव्याप्त मलिन तत्व गंग से निखार दो ।।
स्वर्गिक बना दो पूर्वकाल सी धरा पुनः ,
या खोल अपना तीसरा नयन निहार दो ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 582 - शायद लगेगी तुमको


शायद लगेगी तुमको मेरी ख़्वाहिश अजब है ।।
मानो न मानो मुझको सच मगर ये तलब है ।।
कर दूँ तमाम काम ग़रीबों के मुफ़्त पर ,
ग़ुर्बत मेरी ही मुझसे चिपकी छूटती कब है ?
( ग़ुर्बत =दरिद्रता ,कंगाली )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, July 18, 2014

मुक्तक : 581 - याँ मुफ़्त वाँ नक़द


याँ मुफ़्त वाँ नक़द कहीं बग़ैर ब्याज उधार ।।
महँगी कहीं कहीं पे सस्ती चीज़ें बेशुमार ।।
मुँहमाँगी क़ीमतें ले हाथ में फिरे हैं रोज़ ,
मिलता नहीं कहीं जहाँ में प्यार का बज़ार ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 580 - आर्ज़ू रखता नहीं


आर्ज़ू रखता नहीं कुछ ख़्वाब भी बुनता नहीं ।।
बाग़ के काँटे निकालूँ गुल-कली चुनता नहीं ।।
*ख़ुशमनिश हूँ मैं *मुरीदे-मर्सिया *हैरानगी ,
*शादमानी में भी *नग्माख़ुशी सुनता नहीं ।।
( *ख़ुशमनिश=प्रसन्नचित्त व्यक्ति  *मुरीदे-मर्सिया=शोकगीत प्रेमी *हैरानगी=आश्चर्य *शादमानी=प्रसन्नता का अवसर  *नग्माख़ुशी=हर्षगीत )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, July 17, 2014

144 : ग़ज़ल - वैसे मैं इक मेला हूँ


वैसे मैं इक मेला हूँ ।।
लेकिन आज अकेला हूँ ।।1।।
ऊपर से जितना हड्डी ,
अंदर उतना केला हूँ ।।2।।
वो चट्टान है सोने की ,
मैं मिट्टी का ढेला हूँ ।।3।।
मुझसे झूठ न बुलवाओ ,
गाँधीजी का चेला हूँ ।।4।।
दोपहरी की आँच नहीं ,
अब मैं साँझ की बेला हूँ ।।5।।
इतना जीत को मत झगड़ो ,
युद्ध नहीं मैं खेला हूँ ।।6।।
मुझको कौन सहेज रखे ?
गिन्नी नाँ हूँ धेला हूँ ।।7।।
तुम कागज़ की नाव बड़ी ,
मैं पानी का रेला हूँ ।।8।।
आप जहाज जो उड़ता है ,
मैं ठहरा हथठेला हूँ ।।9।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, July 16, 2014

मुक्तक : 579 - बहुत से लोग पेंगें


बहुत से लोग पेंगें मारने लगते हैं झूलों में ।।
कुछ इक जाकर उछलने-कूदने लगते हैं फूलों में ।।
समंदर हम से ग़म के बूँद भी पाकर ख़ुशी की सच ,
लगाने लोट लगते हैं गधों की तरह धूलों में ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

143 : ग़ज़ल - तुझको पाने को



तुझको पाने को न कल जी-जान से अड़ता ।।
ज़िंदगी का आज पड़ता ही नहीं पड़ता ।।1।।
या तो पक जाता है या फिर रोग से वर्ना ,
शाख़ से पत्ता हरा यूँ ही नहीं झड़ता ।।2।।
कुछ न कुछ टकराव के हालात होते हैं ,
हर किसी से कोई यों ही तो नहीं लड़ता ।।3।।
भीम के भी हाथ से दीवार में कीला ,
बिन हथौड़े के गड़ाये से नहीं गड़ता ।।4।।
टाट में पैबंद मख़मल का लगाओ मत ,
कोई भी लोहे में हीरे को नहीं जड़ता ।।5।।
कितना भी लोहा खरा हो सदियों तक लेकिन ,
रात-दिन पानी में रहकर सड़ता ही सड़ता ।।6।।
एक सुर पर्वत को नाटा कहते रहने से ,
बौने टीलों का कभी भी क़द नहीं बढ़ता ।।7।।
रात-दिन चूसा न होता तुमने जो मुझको ,
तुख़्म दिल में क्यों बग़ावत का मेरे पड़ता ?8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, July 15, 2014

142 : ग़ज़ल - जल्लाद


बना दे रह्मदिल को भी बड़ा जल्लाद सा लोगों ॥
बदल दे ज़िन्दगी सारी ज़रा सा हादसा लोगों ॥
लतीफ़ों की तरह लगता है बेशक़ वो अगर सुनिए ,
हक़ीक़त में है वो लबरेज़े-ग़म रूदाद* सा लोगों ॥
उन्हे वह देखते ही रूह तक जल-भुन के आता है ,
बहुत झुक-झुक के इस्तक़बाल* करने , शाद सा लोगों ॥
जनाज़े में तुम आए हो अदू के तो भी तो रस्मन ,
करो चेहरे को ग़मगीं , मत रखो दिलशाद सा लोगों ॥
न जाने क्यूँ मगर ये आजकल महसूस होता है ,
वतन मेरा अभी पूरा नहीं आज़ाद सा लोगों ?
वो अंदर नेस्तोनाबूद , शर्हा-शर्हा , रंजीदा ,
दिखे बाहर से *सालिम , शादमाँ , आबाद सा लोगों ।।
(*लबरेज़े-ग़म रूदाद=दुखपूर्ण कहानी *अदू=शत्रु  *इस्तक़बाल=स्वागत *शाद=प्रसन्न ,*सालिम=अखण्डित  )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, July 14, 2014

141 : ग़ज़ल - गर्मी में अब्र की कब

गर्मी में अब्र की कब , ख़ैरात माँगता हूँ ?
मौसम में बारिशों के , बरसात माँगता हूँ ॥
तंग आ चुका घिसटते , उड़ने को पंख कब मैं ,
चलने के वास्ते बस , दो लात माँगता हूँ ॥
हैं पास तेरे नौ-दस , एकाध मुझको दे दे ,
कब तुझसे रोटियाँ मैं , छः सात माँगता हूँ ?
हक़ की करूँ गुजारिश , हक़ के लिए लड़ूँ मैं ,
कब भीख की तलब ? कब , सौग़ात माँगता हूँ ?
उम्मीदे-ख़ैरमक़्दम , ग़ैरों से कब मैं रक्खूँ ?
अपनों में बस ज़रा सी , औक़ात माँगता हूँ ॥
(अब्र=बादल  ; ख़ैरमक़्दम=स्वागत-सत्कार )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 578 - मारा नहीं था हमको


मारा नहीं था हमको पकड़कर किसी ने आह ॥
अपने ही हाथों की थी अपनी ज़िंदगी तबाह ॥
अपनों ने ख़ूब हमको पकड़कर रखा था रोक ,
हम ख़ुद ही छूट-भाग चले थे ख़राब राह ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, July 13, 2014

मुक्तक : 577 - ताबूत एक पुख्ता


ताबूत एक पुख़्ता इक शानदार तुर्बत ॥
इक क़ीमती कफ़न कुछ शाने उठाने मैयत ॥
कब से जुटा रखा है अपनों ने साजो-सामाँ ,
मैं ख़ुद भी मुंतज़िर हूँ कब आये वक़्त-ए-रुख़सत ॥
[तुर्बत =समाधि , क़ब्र   /  मुंतज़िर =प्रतीक्षारत ]
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 576 - सोने से ज़्यादा उनकी


सोने से ज़्यादा उनकी नज़र में खरा रहूँ ॥
पीला कभी पड़ूँ न हरा ही हरा रहूँ ॥
मैं क्या करूँ कि जेह्न-ओ-दिल में दुश्मनों के भी ,
कलसे में गंगा-जल सा लबालब भरा रहूँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, July 12, 2014

140 : ग़ज़ल - नाम पर ग़ज़लों के पैरोडी



नाम पर ग़ज़लों के पैरोडी , हजल मत दो ॥
चाहिए मुझको असल कोरी नक़ल मत दो ॥
छोड़ देंगे देखना अधबीच में जाकर ,
माहिरों के काम में बेजा दख़ल मत दो ॥
बिन जगाए गर किसी सोते को काम अपना ,
हो सके तो नींद में उसकी ख़लल मत दो ॥
खा गया ग़ुर्बत में जो काजू समझ पोची-
मूँगफलियाँ , अब रईस हूँ आजकल मत दो ॥
फिर न कहना चाय-पानी तक नहीं पूछा ,
यों मेरी देहलीज़ को बस छू के चल मत दो ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, July 11, 2014

मुक्तक : 575 - सब चने लोहे के


सब चने लोहे के केले से चबा लूँगा ॥
उनके आगे अपने दर्दो-ग़म दबा लूँगा ॥
ज़ोर देकर गर वो मेरा हाल पूछेंगे ,
बेतरह हँस-हँस के आँखें डबडबा लूँगा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक :574 - इस पर हँसूँ मैं या चिढ़ूँ


इस पर हँसूँ मैं या चिढ़ूँ कि फिर करूँ इताब ?
उम्मी को दे रहे हो तोहफे में जो किताब !!
डरता है मौत से वो जैसे बच्चे भूत देख ,
जाँबाज़ का उसे ही तुम नवाज़ते ख़िताब !!
[ इताब=क्रोध,ग़ुस्सा /उम्मी=निरक्षर,अनपढ़ ]
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, July 10, 2014

मुक्तक : 572 - पर्वत होकर चलना



( चित्र Google Search से साभार )

पर्वत होकर चलना चाहूँ ।।
पानी बनकर जलना चाहूँ ।।
है अजीब , नामुमकिन लेकिन ,
बिन पिघले ही ढलना चाहूँ ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, July 9, 2014

मुक्तक : 571 - पाऊँ न आस्माँ


पाऊँ न आस्माँ बुलंदियाँ तो छुऊँगा ॥
ताक़त को अपनी सब समेट कर के उड़ूँगा ॥
मुर्ग़ा हूँ अपने पंख देखकर ही रहूँ ख़ुश ,
उनके लिए मगर मैं एक बाज़ बनूँगा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 570 - कोयलें अपनी मधुर


कोयलें अपनी मधुर आवाज़ को लेकर !
चुप हैं सब साज़िंदे पने साज़ को लेकर !
क्या हुआ मग़रूर से मग़रूर सब गुमसुम -
क्यों न आज इतराते फ़ख्र-ओ-नाज़ को लेकर ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, July 8, 2014

मुक्तक : 569 - देख कर सिर्फ़ सफ़ेदी


देख कर सिर्फ़ सफ़ेदी को चून कहना ग़लत ।।
लाल रंग तकते ही स्याही को ख़ून कहना ग़लत ।।
अश्क़ खारे हों हो खारा तो पसीना भी मगर ,
स्वाद के दम पे उन्हें नोन-नून कहना ग़लत ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...