Monday, March 31, 2014

गीत : बला की तू तो ख़ूबसूरत है.......


बला की तू तो ख़ूबसूरत है II
ख़ुदा क़सम ख़ुदा की मूरत है II
बला की तू.........................
ख़ुदा क़सम.......................
ज़मीं के चाँद से ऊपर का चाँद शर्माए ,
तू शाम आई सरेबाम चाँद क्यों आए ?
गुलाब ख़ुश था की वैसा ज़मीं पे फूल नहीं ,
तेरे हसीन रू को देख रो पड़ा हाए II
बला की तू.........................
ख़ुदा क़सम.......................
रहे न और किसी का तेरा ही हो जाए II
जो करले दीद तेरा तो उसी में खो जाए II
तेरी निगाहे करम का हो कौन बेपर्वा ?
है कौन जो तेरे इनकार से न रो जाए ?
बला की तू.........................
ख़ुदा क़सम.......................
है बेमिसाल तुझसा दूसरा जमाल नहीं II
असर से तेरे बड़ा दूसरा कमाल नहीं II
है तुझमें शर्म जो छुईमुई में भी वो क्या होगी ?
हया की तुझसे जहाँ में बड़ी मिसाल नहीं II
बला की तू.........................
ख़ुदा क़सम.......................
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

देवी गीत ( 2 ) तेरे दर्शन को आना चाहूँ



तेरे दर्शन को आना चाहूँ पर आऊँगा मैं कैसे माँ ?
पग जाते रहे दोनों मेरे चल पाऊँगा मैं कैसे माँ ?
तेरे दर्शन को आना चाहूँ.................................?
हाथों में शंख चक्र साजै मुखड़े पर तेज रहे पावन ,
सुनता बस आया हूँ तेरा है रूप बड़ा ही मनभावन ,
अब नयनहीन दर्शन तेरे कर पाऊँगा मैं कैसे माँ ?
पग जाते रहे दोनों मेरे चल पाऊँगा मैं कैसे माँ ?
तेरे दर्शन को आना चाहूँ.................................?
सज्जन दुर्जन कोई भी हो जो भी जाये तेरे द्वारे ,
हर ले झट सबके कष्ट करे कल्याण सभी का तू तारे ,
दरबार में तेरे पहुँचे बिन तर पाउँगा मैं कैसे माँ ?
पग जाते रहे दोनों मेरे चल पाऊँगा मैं कैसे माँ ?
तेरे दर्शन को आना चाहूँ.................................?
है शक्ति तेरी भक्ति में बड़ी ध्यानू की लाज धरी तूने ,
गदगद हो वीर शिवाजी को अविजित तलवार वरी तूने ,
बिन तुझको प्रसन्न किये मन के वर पाउँगा मैं कैसे माँ ?
पग जाते रहे दोनों मेरे चल पाऊँगा मैं कैसे माँ ?
तेरे दर्शन को आना चाहूँ.................................?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, March 30, 2014

126 : ग़ज़ल - पहले सी हममें तुममें


पहले सी हममें तुममें मोहब्बत न अब रही ।।
इक दूसरे की दिल में वो इज्ज़त न अब रही ।।1।।
दीनार में औ' गिन्नी में तुलते थे पहले हम ,
धेले की कौड़ी भर की भी क़ीमत न अब रही ।।2।।
इक दूजे के बग़ैर न रहते थे हम कभी ,
इक दूसरे की कुछ भी ज़रूरत न अब रही ।।3।।
मुद्दत से सो रहे हैं छुरी , पत्थरों पे हम ,
मखमल के बिस्तरों की वो आदत न अब रही ।।4।।
हमने मुसीबतों का किया इतना सामना ,
आफ़त भी कोई हमको सच आफ़त न अब रही ।।5।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, March 26, 2014

मुक्तक : 515 - सच में ऐसे सँभाल


सच में ऐसे सँभाल कर रक्खे , 
जाँ के जैसे सँभाल कर रक्खे ,
हमने सब तेरे तोहफ़े अब तक I
तूने कैसे सँभाल कर रक्खे ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 514 - इश्क़ में जाने कैसे-कैसे


इश्क़ में जाने कैसे-कैसे पापड़ बेले हैं ।।
शादी के तो बाद और भी विकट झमेले हैं ।।
पहले लगता था है अकेलापन इक बड़ी सज़ा ,
अब लगता है हमसे बेहतर निपट अकेले हैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, March 25, 2014

मुक्तक : 513 - दुनिया न सही गाँव


दुनिया न सही गाँव-नगर होता तेरा मैं ।।
दिलबर न सही दोस्त अगर होता तेरा मैं ।।
रहती तसल्ली कुछ जो तुझसे रहती निस्बतें ,
दुश्मन ही सही कुछ तो मगर होता तेरा मैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, March 24, 2014

125 : ग़ज़ल - ले साथ में अपने वो


ले साथ में अपने वो सभी तेज़ हवाएँ
 ।।

सूरज के हैं स्वजन जो चिराग़ों को बुझाएँ ।।1।।

ख़्वाबीदा जो इंसान हो उठ जाए वो ख़ुद ही ,

खोल आँखें जो सोया है उसे कैसे जगाएँ ?2।।

मंदिर का हर इक शख़्स कलश बनने खड़ा है ,

बुनियाद के पत्थर के लिए किसको मनाएँ ?3।।

कितने भी किसी प्यारे की हो लाश तो घर में ,

रखते न उसे दफ़्न करें सब या जलाएँ ।।4।।

मिलती हो भले मुफ़्त कहीं क़ीमती दारू ,

समझें जो हराम इसको कभी मुँह न लगाएँ ।।5।।

ख़ूब आज़माया अपना असर लाके रही हैं ,

अपनों की बद्दुआएँ औ ग़ैरों की दुआएँ ।।6।।

माँ-बाप को भी सिज्दा वो करने झिझकते ,

मतलब के लिए ग़ैरों के तलवे भी दबाएँ ।।7।।

मुझको न गुनहगारों की आज़ादियाँ अखरें ,

दिल रोता है जब झेलते मासूम सज़ाएँ ।।8।।

बेकार हैं सूरज को मशालों के दिखावे ,

अच्छा हो अंधेरों में कहीं दीप जलाएँ ।।9।।

सुनते हैं ख़ुदा का तो वज़ूद आप न मानें ,

फिर किससे किया करते हैं चुपचाप दुआएँ ?10।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Sunday, March 23, 2014

मुक्तक : 512 - शक्लों से हू-ब-हू


शक्लों से हू-ब-हू तो कोई ज़रा जुदा है ।।
लेकिन ख़ुदा , ख़ुदा है , ख़ास-ओ-अलाहदा है ।।
ये सोचता हूँ ज्यों है मेरा क्या यूँ ही सबके ,
होता ख़ुदा का भी क्या अपना कोई ख़ुदा है ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, March 22, 2014

ग़ज़ल : 124 - रोते-रोते हो गईं जब मुद्दतें..........



रोते-रोते हो गईं जब मुद्दतें ।।
तब लगीं थीं हमको हँसने की लतें ।।1।।
उनकी खोटी ही रही नीयत सदा ,
पर खरी उनको मिलीं सब बरक़तें ।।2।।
चोर-गुण्डों से ही थीं पहले मगर ,
हो रहीं अब कुछ पुलिस से दहशतें ।।3।।
देखकर मंज़िल पे लँगड़ों की पहुँच ,
पैर वाले कर रहे हैं हैरतें ।।4।।
कुछ को मिल जाता है सब कुछ मुफ़्त में ,
कुछ को कुछ मिलता न दे-दे क़ीमतें ।।5।।
एक जैसी मेहनतों के बावज़ूद ,
कुछ को मिलते नर्क कुछ को जन्नतें ।।6।।
वो जो ईनामों का ख़्वाहिशमंद है ,
हैं सज़ाओं वाली उसकी हरक़तें ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति  

Friday, March 21, 2014

ग़ज़ल : 123 - वक़्त आएगा न सोचा था




वक़्त आएगा न सोचा था ऐसा ख़राब भी ।।
खाएँगे पण्डे गोश्त पिएँगे शराब भी ।।1।।
करते थे वो जो दूध-दही से ग़ुसुल कभी ,
आज उनको घूँट भर भी मयस्सर न आब भी ।।2।।
मिलते हैं उनको आज नहीं फूल कागज़ी ,
रौंदे थे कल जिन्होंने जुही भी , गुलाब भी ।।3।।
ब्योरे करे हैं कुछ तो तलब बूँद-बूँद के ,
कुछ लोग बाग लें न नदी के हिसाब भी ।।4।।
क़ुदरत का भी निजाम अब आदम सा हो गया ,
दर्या में ही बरसते हैं काले सहाब भी ।।5।।
है ज़िन्दगी का इल्म कहीं हमसे बेहतर ,
आता भले यों उनको न पढ़ना किताब भी ।।6।। 
भर-भर गिलास पीना दवा का भी ज़हर हो ,
इक चमची पीजिये तो दवा है शराब भी ।।7।।
आया ख़याल हज का तभी से ये बिल्लियाँ ,
कहती हैं अब तकें न वो छिछड़ों के ख़्वाब भी ।।8।।
बदमाश ही न , ज़ुर्म तो कर दें कई दफ़ा ,
हालात की गिरफ़्त में आली जनाब भी ।।9।। 
गर्मी में दोपहर को जो दुश्मन बुरा लगे ,
सर्दी में वो ही लगता भला आफ़्ताब भी ।।10।। 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 511 - जैसे कि दे के दीद



जैसे कि दे के दीद यकायक क़रीब से ,
जन्नत मेरी इन आँखों को बख़्शी नसीब से ;
वैसे ही नज्र कर दो अपनी दौलते दिल भी ,
बन जाऊँ मैं अमीर प्यार का ग़रीब से ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, March 20, 2014

मुक्तक : 510 - कह पाओ रू-ब-रू


कह पाओ रू-ब-रू ना नाजुक-ओ-नरम दिल के II
पढ़ संगदिल भी जिनको हो जाएँ रहम दिल के II
पैग़ामे मोहब्बत वो भेज ऐसे कबूतर से ,
क़िर्तास पे वो कर सब जज़्बात रक़म दिल के II
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, March 19, 2014

मुक्तक : 509 - तुझसे तो शर्तिया थी


तुझसे तो थी शर्तिया , उम्मीदे वफ़ा मगर II
औरों से भी बढ़के तू , निकला बेवफ़ा मगर II
ग़ैरों से फ़रेब तू , करता ही रहा मगर ,
अपनों से भी तू न कर , पाया रे वफ़ा मगर II
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, March 18, 2014

मुक्तक : 508 - कल तक न आये थे


कल तक न आये थे मगर हम आज दोस्तों ,
आये हैं ऐसे दोस्तों से बाज़ दोस्तों II
लेते न हाथों हाथ ना सर पर बिठाते जो ,
करते नहीं जो हमपे फ़ख्रो-नाज़ दोस्तों II
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, March 17, 2014

122 : ग़ज़ल - मुँह बनाकर मत उन्हें कुछ


    
    मुँह बनाकर मत उन्हें कुछ मुस्कुराकर देखना ॥ 
    अपने रूठों को किसी दिन यूँ मनाकर देखना ॥ 
    हमने माना हाँ ! तेरे हम्माम का सानी नहीं ,
    फिर भी इक दिन खुल के बारिश में नहाकर देखना ॥ 
     तुझे बेज़ायक़ा लगता है उसको इक दफ़ा ,
    सिर्फ़ तगड़ी भूख लगने पर तू खाकर देखना ॥ 
    गोश्त हड्डीदार तू हलुए सरीखा चाब ले ,
    एक रूखी-सूखी रोटी भी चबाकर देखना ॥ 
    घंटों जिम में वेटलिफ्टिंग रोज़ तू करता कभी ,
  यों ही इक दिन कुनबे का ज़िम्मा उठाकर देखना ॥ 
    टूट पड़ते फाक़ाकश को देख जूठन पे न हँस ,
    इक ही दिन तू निर्जला चुपके बिताकर देखना ॥ 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

121( ¡¡ ) : ग़ज़ल - मत और किसी के खेल



मत और किसी के खेल संग में तो मानूँ होली !!
तू मुझको भिगो मैं तुझको रंग में तो मानूँ होली !!
मैं तुझको भरे बैठा हूँ ठूँस कब से रीते मन में ,
तू मुझको धरे जब हिय के अंग में तो मानूँ होली !!
पाने को तुझे मैंं राह कोई भी अपनाऊँ सजनी ,
सब वैध रहें यदि प्रेम-जंग में तो मानूँ होली !!
लिख लाख कई तू लेख मुझको क्या किन्तु मुझे लिख दे ,
यदि प्रेम भरा इक पत्र उमंग में तो मानूँ होली !!
पीते हैं सदा हाथों से तेरे पर प्यार भी दे अपना ,
यदि घोंट-मसल कर आज भंग में तो मानूँ होली !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, March 16, 2014

मुक्तक : 507 - ऊँट पर भी बैठ जो


ऊँट पर भी बैठ जो बाज़ार जायें हम ।।
काटने कुत्ते वहाँ भी पहुँचें दम के दम ।।
इस क़दर दुश्मन हमारे हो गए यारों ,
तोहफ़े खोलें तो लगता है न निकलें बम ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, March 14, 2014

मुक्तक : 506 - हर किसी पे उसका दिल


हर किसी पे उसका दिल हारा नज़र आया ॥
इश्क़ का बीमार और मारा नज़र आया ॥
जब उसे देखा था पहले पहल वैसा ही ,
तर-ब-तर ग़म से वो दोबारा नज़र आया ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, March 13, 2014

मुक्तक : 505 - चीज़ों की तरह रखते हैं


( चित्र google search से साभार )
चीज़ों की तरह रखते हैं सब मुझको उठाकर ॥
बिन हाथ-पैर कैसे कहीं जाऊँ मैं आकर ?
इतना ग़रीब इतना-इतना-इतना ग़रीब हूँ ,
देते हैं भिखारी भी भीख मुझको बुलाकर ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 504 - पाँव की तह की ज़मीं


पाँव की तह की ज़मीं और न सर की छत या छाँव ।।
मुल्क़ लगते हैं नहीं लगते सूबे , शहर या गाँव ।।
इसका चस्का है ख़तरनाक कोई खेले तो , तो 
छोटे-मोटे नहीं चलते हैं सियासत में दाँव ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, March 12, 2014

मुक्तक : 503 - उसके पहलू में सुबह


उसके पहलू में सुब्ह सोऊँ जाग रात करूँ ॥
इतना पाया न कभी वक़्त उससे बात करूँ ॥
उसकी सुह्बत की रही सिर्फ़ मेरी हस्रत ही ,
ख़ाली अर्मान रहा ससे मुलाक़ात करूँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, March 11, 2014

मुक्तक : 502 - ऐ झुरमुट एक बार




ऐ झुरमुट एक बार पेड़-झाड़ से तू मिल ॥
ओ ऊँट इक दफ़ा किसी पहाड़ से तू मिल ॥
हैं इस जहाँ में लोग इक से बढ़के इक कई ,
खिड़की कभी तो दुर्ग के किवाड़ से तू मिल ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, March 9, 2014

मुक्तक : 501 - फिर वही या दूसरी


फिर वही या दूसरी तक्लीफ़ मिलती है ।।
आज देखें कौन सी तक्लीफ़ मिलती है ?
आते तो हैं लुत्फ़ की उम्मीद से हम याँ ,
लेकिन अक्सर इक नई तक्लीफ़ मिलती है ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 500 - बेशक़ ही ख़्वाब


बेशक़ ही ख़्वाब देखने पे रोक नहीं है ॥
अर्मान सजाने पे टुक भी टोक नहीं है ॥
इन बुलबुलों को फूँक से दुनिया की बचाना ,
वर्ना जगत में इससे विकट शोक नहीं है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, March 8, 2014

मुक्तक : 499 - गिरा पड़ा ज़मीन से


गिरा पड़ा ज़मीन से उठा उठाकर दे ।।
ख़रीद कर दे छीन या झपट चुराकर दे ।।
करे है दावा तू अगर ख़ुदा का तो मुझको ,
कहीं से भी किसी तरह वो चीज़ लाकर दे ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, March 7, 2014

मुक्तक : 498 - हाथियों को बन्दरों


हाथियों को बन्दरों जैसा उछलने का लगा ।।
सेब खाती हिरनियों को गोश्त चखने का लगा ।।
जिसको देखो दायरे से अपने बाहर हो रहा ,
बिलबिलाते केंचुओं को शौक़ डसने का लगा ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, March 6, 2014

मुक्तक : 497 - कितनी-कितनी मुश्किलेंं


कितनी-कितनी मुश्किलें , किस-किस क़दर दुश्वारियाँ ॥
तै है रोने-धोने की आएँगीं अनगिन बारियाँ ॥
कर रहा सब जान दिल के हाथ हो मज्बूर पर ,
चाँद से भोला चकोरा इश्क़ की तैयारियाँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, March 5, 2014

मुक्तक : 496 - सिदूर माँग का न


सिदूर माँग का न पग की धूल हम हुए ।।
जूड़े का भी नहीं न रह का फूल हम हुए ।।
उसने तो उसको चाहने की छूट भी न दी ,
दिल रख के भी यों इश्क़ के फ़ुज़ूल हम हुए ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, March 4, 2014

121 : ग़ज़ल - रह गया है परिंदा तो



रह गया है परिंदा तो अब नाम भर ।।
पर तो सय्याद ने सब दिये हैं कतर ।।1।।
खाद-पानी से महरूम बंजर ज़मीं ,
तुख़्म कैसे हो कोई वहाँ फिर शजर ?2।।
बस दरिंदों , फ़रिश्तों का रहवास है ,
शह्र में आदमी के न बसते बशर ।।3।।
कहते थकते न थे इश्क़ को कल ख़ुदा ,
क़ह्र बोलें इसी मुँह से अब हम मगर ।।4।।
प्यार दे मत ब-क़द्रे- ज़रूरत सही ,
क़ाबिले दाद हूँ थोड़ी इज्ज़त तो कर ।।5।।
इश्तेहार अपने फ़न का भी होता अगर ,
हम भी होते तुम्हारी तरह नामवर ।।6।।
दर से मेरे ग़रीबी उठी तो मगर ,
दीनो-ईमान रखकर किसी ताक पर ।।7।।
जब थे बीमार कोई न आया कभी ,
हैं जनाज़े में शामिल कई डॉक्टर ।।8।।
( तुख़्म = बीज )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...