Tuesday, March 4, 2014

121 : ग़ज़ल - रह गया है परिंदा तो



रह गया है परिंदा तो अब नाम भर ।।
पर तो सय्याद ने सब दिये हैं कतर ।।1।।
खाद-पानी से महरूम बंजर ज़मीं ,
तुख़्म कैसे हो कोई वहाँ फिर शजर ?2।।
बस दरिंदों , फ़रिश्तों का रहवास है ,
शह्र में आदमी के न बसते बशर ।।3।।
कहते थकते न थे इश्क़ को कल ख़ुदा ,
क़ह्र बोलें इसी मुँह से अब हम मगर ।।4।।
प्यार दे मत ब-क़द्रे- ज़रूरत सही ,
क़ाबिले दाद हूँ थोड़ी इज्ज़त तो कर ।।5।।
इश्तेहार अपने फ़न का भी होता अगर ,
हम भी होते तुम्हारी तरह नामवर ।।6।।
दर से मेरे ग़रीबी उठी तो मगर ,
दीनो-ईमान रखकर किसी ताक पर ।।7।।
जब थे बीमार कोई न आया कभी ,
हैं जनाज़े में शामिल कई डॉक्टर ।।8।।
( तुख़्म = बीज )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (05-03-2014) को माते मत वाले मगर, नेता नातेदार-चर्चा मंच 1542 में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! मयंक जी !

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