रह गया है परिंदा तो
अब नाम भर ।।
पर तो सय्याद ने सब
दिये हैं कतर ।।1।।
खाद-पानी से महरूम
बंजर ज़मीं ,
तुख़्म कैसे हो कोई वहाँ फिर शजर ?2।।
बस दरिंदों ,
फ़रिश्तों का रहवास है ,
शह्र में आदमी के न
बसते बशर ।।3।।
कहते थकते न थे इश्क़
को कल ख़ुदा ,
क़ह्र बोलें इसी मुँह
से अब हम मगर ।।4।।
प्यार दे मत ब-क़द्रे-
ज़रूरत सही ,
क़ाबिले दाद हूँ थोड़ी
इज्ज़त तो कर ।।5।।
इश्तेहार अपने फ़न का
भी होता अगर ,
हम भी होते तुम्हारी
तरह नामवर ।।6।।
दर से मेरे ग़रीबी उठी
तो मगर ,
दीनो-ईमान रखकर किसी ताक पर ।।7।।
जब थे बीमार कोई न
आया कभी ,
हैं जनाज़े में शामिल
कई डॉक्टर ।।8।।
( तुख़्म = बीज )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
2 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (05-03-2014) को माते मत वाले मगर, नेता नातेदार-चर्चा मंच 1542 में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद ! मयंक जी !
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