Friday, March 21, 2014

ग़ज़ल : 123 - वक़्त आएगा न सोचा था




वक़्त आएगा न सोचा था ऐसा ख़राब भी ।।
खाएँगे पण्डे गोश्त पिएँगे शराब भी ।।1।।
करते थे वो जो दूध-दही से ग़ुसुल कभी ,
आज उनको घूँट भर भी मयस्सर न आब भी ।।2।।
मिलते हैं उनको आज नहीं फूल कागज़ी ,
रौंदे थे कल जिन्होंने जुही भी , गुलाब भी ।।3।।
ब्योरे करे हैं कुछ तो तलब बूँद-बूँद के ,
कुछ लोग बाग लें न नदी के हिसाब भी ।।4।।
क़ुदरत का भी निजाम अब आदम सा हो गया ,
दर्या में ही बरसते हैं काले सहाब भी ।।5।।
है ज़िन्दगी का इल्म कहीं हमसे बेहतर ,
आता भले यों उनको न पढ़ना किताब भी ।।6।। 
भर-भर गिलास पीना दवा का भी ज़हर हो ,
इक चमची पीजिये तो दवा है शराब भी ।।7।।
आया ख़याल हज का तभी से ये बिल्लियाँ ,
कहती हैं अब तकें न वो छिछड़ों के ख़्वाब भी ।।8।।
बदमाश ही न , ज़ुर्म तो कर दें कई दफ़ा ,
हालात की गिरफ़्त में आली जनाब भी ।।9।। 
गर्मी में दोपहर को जो दुश्मन बुरा लगे ,
सर्दी में वो ही लगता भला आफ़्ताब भी ।।10।। 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

6 comments:

Unknown said...

v,nice

राजीव कुमार झा said...

बहुत सुंदर प्रस्तुति.
इस पोस्ट की चर्चा, शनिवार, दिनांक :- 22/03/2014 को "दर्द की बस्ती":चर्चा मंच:चर्चा अंक:1559 पर.

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Vijay Naik जी !

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! राजीव कुमार झा जी !

अलका गुप्ता 'भारती' said...

वाह्ह्ह्हह्ह्ह्ह बहुत खूब

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! अलका गुप्ता जी !

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