Monday, September 30, 2019

मुक्तक : 923 - मश्वरा


लेकर मशाल रौशन करने न चल पड़ो तुम 
उसको जो कोयले की इक खान है ; सँभलना ।।
आँखों में नींद भर उस पर चल दिए हो सोने ,
बिस्तर सा वो नुकीली चट्टान है ; सँभलना ।।
अंदर है उसमें ज़िंदा ज्वालामुखी धधकता ,
लेकिन ज़ुबाँ से उसके ठंडा शहद टपकता ,
इक मश्वरा है उससे मत दोस्ती रखो सच ,
तुम झोंपड़ी हो वो इक तूफ़ान है ; सँभलना ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Friday, September 27, 2019

मुक्तक : 922 - नच रहा हूँ


तुम मानों या न मानों 
यह कह मैं सच रहा हूँ ।।
बारिश में भीगने से 
हरगिज़ न बच रहा हूँ ।।
दरअस्ल मैं किसी को 
नीचे दरख़्त के रुक ,
चोरी से नचते तक दिल 
ही दिल में नच रहा हूँ ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, September 19, 2019

मुक्तक : 921 - गिर पड़ा हूँ


हैरान हो रहे हो , मैं कल सा फिर पड़ा हूँ ?
हँसते ही हँंसते कैसे , अश्क़ों से घिर पड़ा हूँ ?
मैं आज भी नशे में हूँ पर नहीं नशे से ,
ठोकर किसी के धोख़े की खा के गिर पड़ा हूँ ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, September 16, 2019

मुक्तक : 920 - चाहत


तुम्हीं एक से जिस्म आहत कहाँ है ?
किसी से भी इस दिल को राहत कहाँ है ?
अगर ख़ुश नहीं हूँ तो ये मत समझना ,
अभी मुझमें हँसने की चाहत कहाँ है ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, September 15, 2019

ग़ज़ल : 276 - जिद्दोजहद


बड़ी जिद्दोजहद से , कशमकश से , ख़ूब मेहनत से ।।
न हो हैराँ मोहब्बत की है मैंने घोर नफ़रत से ।। 1 ।।
हूंँ जो आज इस मुक़ाँ पर तो बड़ी ही मुश्क़िलों से हूँ ,
न इत्मीनान से , आराम से , ना सिर्फ़ क़िस्मत से ।। 2 ।।
यक़ीनन जंग लड़कर ही किया मैंने भी हक़ हासिल ,
मिला कब माँगने से , इल्तिजा से , सिर्फ़ चाहत से ।। 3 ।।
न जब राज़ी हुए थे वो मेरी दरख्व़ास्त सुनने को ,
मैं चढ़ बैठा था नीचे कूदने ऊँची इमारत से ।। 4 ।।
वहाँ सख्त़ी से , बेदर्दी से उसने दिल किये टुकड़े ,
यहाँ तोड़ा न मैंने पत्थरों को भी नज़ाकत से ।। 5 ।।
ज़रूरी तो नहीं सूरत अमीराना हो जिसकी वो ,
हक़ीक़त में हो दौलतमंद , ना हो तंग ग़ुर्बत से ।। 6 ।।
( जिद्दोजहद = पराक्रम , कशमकश = असमंजस , इल्तिजा = निवेदन , ग़ुर्बत = कंगाली )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, September 12, 2019

महामुक्तक : 919 - परिवर्तन


जो दिया करते थे सौग़ातों पे सौग़ातें ,
आज वो ही लूटने हमको मचलते हैं ।।
जो हमारे सिर का सारा बोझ ढोते थे ,
अब वही पैरों तले हमको कुचलते हैं ।।
जो लगे रहते थे सचमुच इक ज़माने में ,
हाँ ! मिटाकर ख़ुद को हमको बस बनाने में ,
करके वो नुक़्साँ हमारा , ढेर दे तक़्लीफ़ ,
भर ख़ुशी से आज बंदर सा उछलते हैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, September 10, 2019

गीत : 51 - अर्द्ध शतक


हाय मंसूबा नहीं इक अब तलक पूरा हुआ ।।1।।
जबकि अपनी उम्र का आधा शतक पूरा हुआ ।।2।।
क्या नहीं हमने किया मंज़िल को पाने वास्ते ।
रौंद डाले काँटों , अंगारों भरे सब रास्ते ।
कुछ ने कम मेहनत में भी है पा लिया अपना मुक़ाम ।
कुछ ने बैठे - बैठे ही हथिया लिया अपना मुक़ाम ।।
और इक हम हैं कि जिनका बिन रुके लंबा सफ़र ,
धीरे - धीरे रेंग कर , ना चल लपक पूरा हुआ ।।3।।
हाय मंसूबा नहीं इक अब तलक पूरा हुआ ।।
जबकि अपनी उम्र का आधा शतक पूरा हुआ ।।
हमने जिस दिन से कफ़न को बेचना चालू किया ।
ठीक उसी दिन से सभी लोगों ने मरना तज दिया ।
हाथ उनके आइने अंधों को सारे बिक गए ।
और कंघे भी निपट गंजों को सारे बिक गए ।
ख़्वाब उनका सोते-सोते हो गया सच और इधर ,
आँख खोलेे ना सतत पलकें झपक पूरा हुआ ।।4।।
हाय मंसूबा नहीं इक अब तलक पूरा हुआ ।।
जबकि अपनी उम्र का आधा शतक पूरा हुआ ।।
जाने कैसी-कैसी तदबीरें लगाते हम रहे ।
हर तरह की सोच-तरकीबें लगाते हम रहे ।
काम से कब हमने जी अपना चुराया था मगर ।
बल्कि ख़ुद को डूब कर उसमें भुलाया था मगर ।
काम सब के नाचते-गाते हुए सब बन गए ,
अपना इक भी हँसते-हँसते ना फफक पूरा हुआ ।।5।।
हाय मंसूबा नहीं इक अब तलक पूरा हुआ ।।
जबकि अपनी उम्र का आधा शतक पूरा हुआ ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, September 9, 2019

मुक्तक : 918 - गुलगुला


तीखा मौसम मालपुआ , गुलगुला हुआ है ।।
धरती गीली श्याम गगन अब धुला हुआ है ।।
हम इसके आनन्द में रम भूल ये गए कब ,
बरखा बंद हुई पर छाता खुला हुआ है ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, September 8, 2019

मुक्तक : 917 - बिल


जब कभी तू हर इक शख़्स का ख़्वाब थी ,
तू मेरा भी थी मक़्सद , थी मंज़िल कभी ।।
आशिक़ों की तेरे जब बड़ी फ़ौज थी ,
उसमें चुपके से मैं भी था शामिल कभी ।।
तू न माने ज़माने के आगे तो क्या ,
है हक़ीक़त मगर तुझको सारी पता ,
मेरे दिल में तेरी इक बड़ी माँद थी ,
तेरे दिल में था मेरा भी इक बिल कभी ।। 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, September 2, 2019

मुक्तक : 916 - झक


उनके लिए जो मारते हैं झक अभी भी हम ?
समझे नहीं ये बात आज तक , अभी भी हम ।।
उनको नहीं सुहाते फूटी आँख हम मगर !
उनको ही ताकते हैं एकटक अभी भी हम ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...