Thursday, October 31, 2013

मुक्तक : 359 - कब वो मेरा है मेरे


कब वो मेरा है मेरे हुस्न का फ़िदाई है ।।
उसको बस जिस्म से ही मेरे आश्नाई है ।।
ख़ूबसूरत रहूँगी तब ही तक वो चाहेगा ,
मानूँ न मानूँ वलेकिन यही सचाई है ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, October 28, 2013

मुक्तक : 358 ( B ) - चलती गाड़ी के लिए


चलती गाड़ी के लिए लाल सी झंडी होगा ।।
 बर्फ़ उबलता वो ; चाय फ़ीकी औ ठंडी होगा ।।
अजनबी है वो मगर मुझको लगता चेहरे से ,
उसके जैसा न कोई दूजा घमंडी होगा ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, October 27, 2013

L O C tension

अपने इन  हालात के ख़ुद ही तो हम जिम्मेदार नहीं ?
शांति शांति क्योंकर चिल्लाएँ ? क्या हम पे हथियार नहीं ?
समझ के दुश्मन फुफकारों को गीदड़ भभकी वार करे ,
क्या विषदंत का मालिक फिर भी डसने का हक़दार नहीं ?
नहीं बन रहा गिद्ध कबूतर बहुत कोशिशें कर देखीं ,
क्यों कपोत भी गरुड़-बाज बनने को फिर तैयार नहीं ?
अब जवाब ईंटों का हमको पत्थर से देना होगा ,
वरना दुश्मन समझेगा हम ताक़तवर दमदार नहीं ॥
वक़्त न लातों के भूतों पर बातों में बर्बाद करो ,
समझ न पाएगा अहमक़ जब तक देंगे फटकार नहीं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 358 - तमाम जद्दोजहद


क़ाफ़ी जद्दोजहद के मुश्किलों के बाद मिला ।।
तीखी कड़वाहटों के बाद मीठा स्वाद मिला ।।
अपनी तक़्दीर कि लाज़िम जो जब भी हमको रहा ,
उससे कम ही हमेशा पाया कब ज़ियाद मिला ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, October 26, 2013

मुक्तक : 357 - ख़ुशहाल दिल को जब्रन



ख़ुशहाल दिल को जब्रन नाशाद करके रोऊँ ॥
आबाद ज़िंदगानी बर्बाद करके रोऊँ ॥
क्या हो गया है मुझको उस सख़्त-बेवफ़ा को ,
मैं क़ब्र में पहुँचकर भी याद करके रोऊँ ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, October 13, 2013

मुक्तक : 356 ( B ) - इष्ट मित्र ?



पंक में खिलते कँवल को मानते हो अति पवित्र ॥
जंगली पुष्पों में भी तुम सूँघते फिरते हो इत्र ॥
किन्तु जिसने झोपड़ी में यदि लिया होता है जन्म ,
हिचकिचाते क्यों बनाने में उसे तुम इष्ट मित्र ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

फिर से जग को...................


फिर से जग को चाहिए रामचन्द्र प्रादर्श ॥ 
अब तक हुआ न दूसरा उन जैसा आदर्श ॥ 
डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, October 6, 2013

मुक्तक : 356 - तू काट कर भी


तू काट कर भी रख दे मेरे पाँव मैं मगर ,
पूरा करूँगा जिसपे चल पड़ा हूँ वो सफ़र ॥
राहों को भर दे चाहे तू नुकीले काँटों से ,
मज़्बूत इरादों से ढ़ूँगा मैं वो रौंदकर ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 355 - वो बर्फ़ ओढ़े अंदर


वो बर्फ़ ओढ़े अंदर होली सा जल रहा है ॥
ऊपर है ठहरा-ठहरा नीचे वो चल रहा है ॥
हस्ती में उसकी क़ामिल जद्दोजहद है फिर भी ,
हालात के मुताबिक़ पानी सा ढल रहा है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, October 5, 2013

देवी गीत (1) तीनों ताप से जलती दुनिया




॥ तुम निर्मल मल ग्रसित जगत मन ,पावन कर दो मैया ॥
॥ हर  लो  सब  मन  की  विकृतियाँ , जीवन भर को मैया ॥

तीनों तापों से जलती दुनिया मैया आग बुझाओ ॥
औंधे मुँह सब लोग पड़े हैं आके आप उठाओ ॥1॥
तीनों तापों से जलती दुनिया....................
काम क्रोध मद लोभ मोह मत्सर में सभी फिरते हैं ।
स्वार्थ मगन दुनिया वाले मतलब को उठे गिरते हैं ।
विषय वासनाओं के दल दल से मन प्राण बचाओ ॥2॥
तीनों तापों से जलती दुनिया........................
यह संसार असत या सत है मन में सभी ये भ्रम है ।
द्वैत अद्वैत की खींचातानी व्यर्थ सभी ये श्रम है ।
मूरख हैं सब आकर इनको तत्व ज्ञान समझाओ ॥3॥
तीनों तापों से जलती दुनिया...........................
मन से वचन से तेरी जहाँ में भक्ति कहाँ सब करते ?
दुष्ट अनिष्ट की आशंका वश ढोंग यहाँ सब करते ।
हेतु रहित अनुराग आप पद सबका आज लगाओ ॥4॥
तीनों तापों से जलती दुनिया............................
राम कहाँ रावण को जीत सकते थे शक्ति बिन तेरी ?
और कहाँ मिल सकती थी वह शक्ति भक्ति बिन तेरी ?
अपनी शक्ति का फिर से जग को चमत्कार दिखलाओ ॥5॥
तीनों तापों से जलती दुनिया............................
कलियुग में तेरा नाम काम तरु मनवांछित फल दाता ।
दुःख दुकाल दारिद्र्य दोष सब तेरी दया से जाता ।
इस संसार की सब विपदाएँ मैया शीघ्र हटाओ ॥6॥
तीनों तापों से जलती दुनिया............................
औंधे मुँह सब लोग पड़े हैं................................

-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, October 4, 2013

107 - ग़ज़ल - कब सबके सपने


कब सबके सपने सच होते ?
पर खाएँ इनमें सब गोते ।।1।।
जो बेवज्ह ही हँसते अक़्सर ,
उनमें झरते ग़म के सोते ।।2।।
मत फँसना मत फँसना’ रटते ,
जाल फँसे सब अहमक़ तोते ।।3।।
आम नहीं वो पाते हैं जो ,
 झाड़ करील-बबूल के बोते ।।4।।
जिनको बस दर्दोग़म मिलते ,
ऐसे लोग बहुत कम रोते ।।5।।
ख़ुद का बोझा ही कब उठता ?
सब अपने अपने ग़म ढोते ।।6।।
तारी मैल ज़मीरों पर हो ,
लेकिन लोग बदन भर धोते ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, October 3, 2013

106 : ग़ज़ल - आँख जब-जब भी कभी


आँख जब-जब भी कभी ख़ुद पर उठाई है ।।
कुछ न कुछ हमने कमी हर बार पाई है ।।1।।
जिसकी की तारीफ़ हमने वक़्त पड़ने पर ,
उसकी उसके मुँह पे ही कर दी बुराई है ।।2।।
दिन दहाड़े आँख खोले स्वप्न तक-तक कर ,
शेख़चिल्ली छाप अपनी ख़ुद बनाई है ।।3।।
वो तो ख़ुश होगा ही जो पहुँचा बुलंदी पर ,
अपनी हस्ती हमने ऊपर से गिराई है ।।4।।
जो भी मेहनत की कमाई थी वो कल मैंने ,
बदनसीबी से जुए में सब गँवाई है ।।5।।
हम उन्हें किस हक़ से छूने दें नहीं दारू ,
ख़ुद तो पी औरों को भी हमने पिलाई है ।।6।।
उनके क़ाबिल तोहफा क्या पास था अपने ,
दिल दिया औ' जान भी अपनी लुटाई है ।।7।।
कर्ण नामक घर से मैंने सच कहूँ अब तक ,
भीख में फूटी हुई कौड़ी न पाई है ।।8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, October 2, 2013

कविता : मैं नहीं कह सकता.................


मैं नहीं कह सकता.................
मुझे मान्य है ।
सर्वथा मान्य है ।
आप जो कहते रहते हो प्रायः -
मात्र बेटों के पिता होने के बावजूद
बेटियों के बारे में ।
कि बेटियाँ ये होती हैं ,
बेटियाँ वो होती हैं ।
( ये और वो से यहाँ तात्पर्य
उनकी अच्छाइयाँ मात्र से है )
निरे अपवाद छोड़कर यही सच भी है
किन्तु
जिसे आप डंका बजा-बजा कर कह सकते हो
मैं वह सब नहीं कह सकता !
हरगिज़ नहीं कह सकता !
जबकि आपकी कविताओं में चित्रित ,
कहानियों , उपन्यासों में वर्णित
महान बेटियों से कहीं बढ़कर ही
मैंने सदैव उन्हे पाया है ।
क्योंकि ,
यदि जो आप कहते हैं
वही मैं भी बोलने लगूँ तो
इसे पक्षपात ही समझा जाएगा ।
मात्र बेटियों का बाप जो हूँ ।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, October 1, 2013

मुक्तक : 354 - तेरे क़द के आगे



तेरे क़द के आगे ऊँचे-ऊँचे भी बौने ॥
इक तू ही लगता पूरा दूजे औने-पौने ॥
वो शख़्सियत है तू जिसका कोई भी नहीं सानी ,
तू बस शेरे-बब्र और सब बकरी-मृगछौने ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...