Thursday, October 3, 2013

106 : ग़ज़ल - आँख जब-जब भी कभी


आँख जब-जब भी कभी ख़ुद पर उठाई है ।।
कुछ न कुछ हमने कमी हर बार पाई है ।।1।।
जिसकी की तारीफ़ हमने वक़्त पड़ने पर ,
उसकी उसके मुँह पे ही कर दी बुराई है ।।2।।
दिन दहाड़े आँख खोले स्वप्न तक-तक कर ,
शेख़चिल्ली छाप अपनी ख़ुद बनाई है ।।3।।
वो तो ख़ुश होगा ही जो पहुँचा बुलंदी पर ,
अपनी हस्ती हमने ऊपर से गिराई है ।।4।।
जो भी मेहनत की कमाई थी वो कल मैंने ,
बदनसीबी से जुए में सब गँवाई है ।।5।।
हम उन्हें किस हक़ से छूने दें नहीं दारू ,
ख़ुद तो पी औरों को भी हमने पिलाई है ।।6।।
उनके क़ाबिल तोहफा क्या पास था अपने ,
दिल दिया औ' जान भी अपनी लुटाई है ।।7।।
कर्ण नामक घर से मैंने सच कहूँ अब तक ,
भीख में फूटी हुई कौड़ी न पाई है ।।8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

6 comments:

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! राजेंद्र कुमार जी !

मेरा मन पंछी सा said...

बेहतरीन गजल...
:-)

Sarik Khan Filmcritic said...

Badiya Gazal.
Meri bhi ek kuch linene Charchamanch main Chhapi hai. Main aapke sahar Gadarwara ka hu.

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! राजीव कुमार झा जी !

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Reena Maurya जी !

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! सारिक खान जी !

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