Friday, October 4, 2013

107 - ग़ज़ल - कब सबके सपने


कब सबके सपने सच होते ?
पर खाएँ इनमें सब गोते ।।1।।
जो बेवज्ह ही हँसते अक़्सर ,
उनमें झरते ग़म के सोते ।।2।।
मत फँसना मत फँसना’ रटते ,
जाल फँसे सब अहमक़ तोते ।।3।।
आम नहीं वो पाते हैं जो ,
 झाड़ करील-बबूल के बोते ।।4।।
जिनको बस दर्दोग़म मिलते ,
ऐसे लोग बहुत कम रोते ।।5।।
ख़ुद का बोझा ही कब उठता ?
सब अपने अपने ग़म ढोते ।।6।।
तारी मैल ज़मीरों पर हो ,
लेकिन लोग बदन भर धोते ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

5 comments:

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

बहुत बहुत धन्यवाद ! रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी !

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

बहुत बहुत धन्यवाद ! राजीव कुमार झा जी !

Asha Joglekar said...

मैल जमीरों पर तारी है
फिर भी लोग बदन भर धोते।
सही कहा।

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! आशा जोगळेकर जी !

Anonymous said...

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