Saturday, July 30, 2016

ग़ज़ल : 206 - लाशों से शर्मिंदा हूँ ॥



लाशों से शर्मिंदा हूँ ॥
मुर्दों सा जो ज़िंदा हूँ ॥
पर औ पाँव कटे तो क्या ,
ज़ात का एक परिंदा हूँ ॥
बेघर हूँ तो क्या उनके ,
दिल का तो बाशिंदा हूँ ॥
अँधियारा भागे मुझसे ,
ऐसा मैं ताबिंदा हूँ ॥
लगता हूँ साहब जैसा ,
वैसे मैं कारिंदा हूँ ॥
कल मैं उनका माज़ी था ,
कल का आइंदा हूँ ॥
तारीफ़ें सब पीठों पर ,
मुँह पे करता निंदा हूँ ॥
वैसे हूँ जाँबख़्श मगर ,
गाह ब गाह दरिंदा हूँ ॥
( ताबिंदा =चमकने वाला ,कारिंदा = कर्मचारी ,माज़ी = भूतकाल ,आइंदा = भविष्य ,जाँबख़्श = मरने से बचाने वाला ,गाह ब गाह = कभी कभी )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, July 23, 2016

ग़ज़ल : 205 - दिल लगाने चल पड़ा हूँ मैं ॥


हथेली पर ही सरसों को जमाने चल पड़ा हूँ मैं ॥
कि बिन पिघलाए पत्थर को बहाने चल पड़ा हूँ मैं ॥
नहीं हैं आँखें जिसकी और न जिसके कान भी उसको ,
गले को फाड़कर अपने बुलाने चल पड़ा हूँ मैं ॥
जड़ें अपनी जमाने में जहाँ पे नागफणियाँ भी
उखड़ जाएँ , वहाँ तुलसी उगाने चल पड़ा हूँ मैं ॥
कहाँ तक हुस्न से उसके बचाऊँ अपनी आँखों को ,
कि आख़िरकार उससे दिल लगाने चल पड़ा हूँ मैं ॥
जो सुलगा दे नदी को वो उसे ही अपना दिल देगी ,
यही सुनकर समंदर को जलाने चल पड़ा हूँ मैं ॥
हमेशा आँख में आँसू भरे वो घूमता रहता ,
उसे कर मस्ख़री थोड़ा हँसाने चल पड़ा हूँ मैं ॥
दमे आख़िर ज़माने से जो दिल में दफ़्न है इक राज़ ,
उसे इक राज़दाँ को अब बताने चल पड़ा हूँ मैं ॥
न रेगिस्तान में पीने को भी पानी मयस्सर था ,
हुई बरसात तो प्यासा नहाने चल पड़ा हूँ मैं ॥
बहुत फूलों को सिर ढोया , उठाए नाज़ हसीनों के ,
अब उकताकर पहाड़ों को उठाने चल पड़ा हूँ मैं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, July 19, 2016

*मुक्त-ग़ज़ल : 204 - छटपटाकर रह गया हूँ ॥



मात बच्चों से ही खाकर रह गया हूँ ॥
तिलमिलाकर , छटपटाकर रह गया हूँ ॥
आर्ज़ू तो थी कि सोना ही उठाऊँ ,
हाथ मिट्टी ही उठाकर रह गया हूँ ॥
मोतबर कोई नहीं जब मिल सका तो ,
राज़ सब दिल में दबाकर रह गया हूँ ॥
आँच कुछ माँगी है उसने तापने को ,
ख़ुद को बीड़ी सा जलाकर रह गया हूँ ॥
पूछते थे वो कि मैं क्या हूँ ? कहूँ क्या ?
आदमी हूँ ये बताकर रह गया हूँ ॥
उस हसीं की इक हँसी पर उम्र भर की ,
मैं कमाई को लुटाकर रह गया हूँ ॥
इस क़दर मुफ़्लिस हूँ मैं जाँ को बचाने ,
भूख में ख़ुद को चबाकर रह गया हूँ ॥
( आर्ज़ू = कामना , मोतबर = विश्वसनीय , हसीं = सुंदर , मुफ़्लिस = ग़रीब )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, July 17, 2016

ग़ज़ल : 203 - रावण भी रहता है मुझमें !!


तू क्या जाने क्या है मुझमें ?
सिंह है या चूहा है मुझमें !!
इत बसते हैं सीतापति उत ,
रावण भी रहता है मुझमें !!
बूढ़ा हूँ पर सच नटखट सा ,
अब भी इक बच्चा है मुझमें !!
मुझको हँसते कम ही पाना ,
इक चिर दुख बसता है मुझमें !!
मुँह खोलूँ तो उगलूँ लपटें ,
इक जंगल जलता है मुझमें !!
तू चाहे कुछ वैसा , कुछ-कुछ
मैं चाहूँ वैसा है मुझमें !!
तुझमें सब कुछ चुंबक जैसा ,
कुछ-कुछ लोहा सा है मुझमें !!
तू तज आप कहें सब मुझको ,
इतना कुछ बदला है मुझमें !!
लगता हूँ मधु का कलसा पर ,
विष ही विष सिमटा है मुझमें !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Saturday, July 16, 2016

मत हँसें !



[ चित्र Google Search से साभार ] 

चाहकर भी हो न पाते छरहरे
हम पे क़ुदरत का है ये ज़ुल्मो-सितम ॥ 
हम पे हँसने की जगह करना दुआ

कैसे भी हो ? हो हमारा वज़्न कम ॥ 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, July 15, 2016

मुक्तक : 852 - दया , करुणा , अहिंसा



हाँ दया , करुणा , अहिंसा का सतत उपदेश दे ॥
किन्तु मत प्रकृति विरोधी रात - दिन संदेश दे ॥
वृद्ध हो , भूखा हो तेरा दास भी हो तो भी मत ,
घास चरने का कभी भी शेर को आदेश दे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, July 13, 2016

मुक्तक : 851 - वक़्त-ए-आख़िर



वक़्त-ए-आख़िर सही रे एक बार ही मुझको ,
अपने सीने से तू लगा के माफ़ कर देना ।।
मेरी ख़ातिर जो तेरे दिल में मैल है तारी ,
कर के मुझको हलाल ख़ूँ से साफ़ कर देना ।।
झूठ बदनाम इस क़दर हुआ कि दुनिया को ,
अब न क़ाबिल बचा हूँ मुँह तलक दिखाने के ;
मुझ सरेआम बेलिबास को चले-चलते ,
इक कफ़न जानेजाँ सियह लिहाफ़ कर देना ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Tuesday, July 12, 2016

ग़ज़ल : 202 - दीप राग हँसते हैं ॥



लगा के वो मेरी खुशियों में आग हँसते हैं ॥
गिरा के खाई में छुप–छुप के भाग हँसते हैं ॥
पिला के ज़ह्र मुझको मौत की सुला के नींद ,
शराब पी के सारी रात जाग हँसते हैं ॥
ख़मोश रहके भी डसते हैं और बोलें तो ,
जुबाँ के उनकी काले , काट , नाग हँसते हैं ॥
मलार सुनने मेरे कान जब मचलते हैं ,
सुना के मुझको तब वो दीप राग हँसते हैं ॥
बुला के शेर को दावत पे तश्तरी भर-भर ,
परोस घास-भूसा-पात-साग हँसते हैं ॥
हैं इस क़दर वो दीवाने नुकीले काँटों के ,
उजाड़-उजाड़ के फूलों के बाग़ हँसते हैं ॥
फ़रिश्ते होते हैं गिरतों को थामने वाले ,
गिरा-गिरा के तो बस लोग-बाग हँसते हैं ॥
( मलार = वर्षा ऋतु के समय गाया जाने वाला राग , मल्हार )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, July 11, 2016

मुक्तक : 850 - तन से सब उतार के ॥




[ चित्र google search से साभार ]

कर रहा है स्नान कोई तन से सब उतार के ॥
कोई भी न देखता ये सोच ये विचार के ॥
उसके इस भरोसे को न मार डाल इस तरह ,
झाँक-झाँक के तू गुप्त छिद्र से किवार के ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, July 6, 2016

मुक्तक : 849 - तुमतुराक़


वस्ल महबूब से होता , नहीं फ़िराक़ होता ॥
इश्क़ मेरा न सिसकते हुए हलाक होता ॥
हाँ अगर होता वो मुफ़्लिस या उसके जैसा मेरा ,
बल्कि उससे भी कहीं बढ़के तुमतुराक़ होता ॥
( वस्ल = मिलन , फ़िराक़ = बिछोह , हलाक = हत , तुमतुराक़ = वैभव )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, July 5, 2016

मुक्तक : 848 - मग़्ज़ , दिल , अक़्ल




मग़्ज़ , दिल , अक़्ल सभी तीन बिछा रक्खे थे ॥
फूल चुन बाग़ से रंगीन बिछा रक्खे थे ॥
तेरे आने की हर इक राह पे मैंने डग-डग ,
अपनी आँखों के दो क़ालीन बिछा रक्खे थे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Monday, July 4, 2016

ग़ज़ल : 201 - सच नहीं अच्छी कहानी चाहिए ॥



बस तुम्हारी मुँहज़ुबानी चाहिए ॥
सच नहीं अच्छी कहानी चाहिए ॥
आख़री ख़्वाहिश _जो मेरी खो गई
फिर से वापस वो जवानी चाहिए ॥
मुझको तालाबों , कुओं , झीलों में भी ,
नदियों के जैसी रवानी चाहिए ॥
लू-लपट ,हिमपात ,फटते मेघ नाँ ,
मुझको सब ऋतुएँ सुहानी चाहिए ॥
याद तो आती है तेरी रोज़ ही ,
तुझको भी तशरीफ़ लानी चाहिए ॥
दे चुका तुझको मैं क्या-क्या तोहफ़े ,
अब मुझे तुझसे निशानी चाहिए ॥
दोस्त दो ,दुश्मन दो लेकिन शर्त है ,
मुझको जानी ,सिर्फ़ जानी चाहिए ॥
प्यास पानी से मेरी बुझती न अब ,
अब मुझे अंगूर-पानी चाहिए ॥
चाहिए हर वक़्त लड़कों को सनम ,
अब न मम्मी ,दादी ,नानी चाहिए ॥
इश्क़ सस्ता हो गया तो क्या हमें ,
कम नहीं क़ीमत लगानी चाहिए ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...