Tuesday, July 19, 2016

*मुक्त-ग़ज़ल : 204 - छटपटाकर रह गया हूँ ॥



मात बच्चों से ही खाकर रह गया हूँ ॥
तिलमिलाकर , छटपटाकर रह गया हूँ ॥
आर्ज़ू तो थी कि सोना ही उठाऊँ ,
हाथ मिट्टी ही उठाकर रह गया हूँ ॥
मोतबर कोई नहीं जब मिल सका तो ,
राज़ सब दिल में दबाकर रह गया हूँ ॥
आँच कुछ माँगी है उसने तापने को ,
ख़ुद को बीड़ी सा जलाकर रह गया हूँ ॥
पूछते थे वो कि मैं क्या हूँ ? कहूँ क्या ?
आदमी हूँ ये बताकर रह गया हूँ ॥
उस हसीं की इक हँसी पर उम्र भर की ,
मैं कमाई को लुटाकर रह गया हूँ ॥
इस क़दर मुफ़्लिस हूँ मैं जाँ को बचाने ,
भूख में ख़ुद को चबाकर रह गया हूँ ॥
( आर्ज़ू = कामना , मोतबर = विश्वसनीय , हसीं = सुंदर , मुफ़्लिस = ग़रीब )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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