Sunday, November 13, 2016

ग़ज़ल : 219 - खा-खा कर ॥



अपनों से बैठे खफ़ा हैं खार खा-खा कर ।।
घूँट पीते ख़ून का खूंख़्वार खा-खा कर ।।1।।
बेबसी में जो न खाना था वही जाँ को ;
हम बचाते पड़ गए बीमार खा-खा कर ।।2।।
इस क़दर मज़्बूर हैं हम प्यास से अपनी ;
सच बुझाते हैं इसे अंगार खा-खा कर ।।3।।
जीतने को और भी अपनी कमर कसते ;
दुश्मनों से हम क़रारी हार खा-खा कर ।।4।।
टीन सी उसकी हुई खाल अपने मालिक से ;
चाबुकों की मार हज़ारों बार खा-खा कर ।।5।।
क्या हुआ वो चार दिन के चार भूखे बस ;
उठ गए थाली से लुक़्में चार खा-खा कर ?6।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, November 10, 2016

*मुक्त-मुक्तक : 866 - ये तेरा जिस्म



तू सिर से पाँव तक बेशक निहायत खूबसूरत है ॥ 
ये तेरा जिस्म संगेमरमरी कुदरत की मूरत है ॥ 

नहीं बस नौजवानों की , जईफ़ों की भी अनगिनती ;

तू सचमुच मलिका-ए-दिल है , मोहब्बत है , ज़रूरत है ॥

(  जईफ़ों = वृद्धों )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...