Saturday, April 22, 2017

ग़ज़ल : 232 - मीर के दीवान बिकते हैं ?



कहीं पर रात में आधी ; सजे अरमान बिकते हैं ॥
कहीं पर दिन दहाड़े मौत के सामान बिकते हैं ॥
ख़रीदें ज्यों लतीफ़ों की किताबें लोग हाथों हाथ ,
नहीं क्यों दाग़ , ग़ालिब , मीर के दीवान बिकते हैं ?
कहीं पर लोग लोगों की बचा देते हैं जाँ यों ही ,
कहीं अपनों के अपनों पर किए एहसान बिकते हैं ॥
हवा मुँहमाँगी क़ीमत पे वहाँ बिकती है लेकिन मुफ़्त,
अगरबत्ती , इतर , क़ाफ़ूर औ लोबान बिकते हैं ॥
अगर लग जाएँ ऊँची बोलियाँ तो फिर जहाँ में सच ,
याँ अच्छे अच्छों के हाँ दीं , ज़मीर , ईमान बिकते हैं ॥
( लतीफों = चुटकुलों , दीवान = एक विशिष्ट प्रकार का ग़ज़ल संग्रह , इतर = इत्र , क़ाफ़ूर = कपूर , दीं = धर्म )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, April 16, 2017

ग़ज़ल : 231 - ख़ुश बहुत ख़ुश आए दिन



ख़ुश वो मुझको यों हमेशा ही रुला के होते हैं ॥
राधिका को कृष्ण ज्यों झूला झुला के होते हैं ॥ 1 ॥
याद तेरी जो न आए तो मैं रो पड़ता हूँ याँ ,
सब जहाँ ख़ुश बेवफ़ाओं को भुला के होते हैं ॥ 2 ॥
अपने पैरों को वो मेरे आँसुओं की धार से ,
ख़ुश बहुत ख़ुश आए दिन टप-टप धुला के होते हैं ॥ 3 ॥
सामने ही वो मेरे ; मेरे रक़ीबों को बड़े ,
प्यार से पास अपने ख़ुश हक़ से बुला के होते हैं ॥ 4 ॥
मैं तो जल उठता हूँ तब क़ागज़ सा जब अपना मुझे ,
हाथ वो मर्ज़ी से अपनी ख़ुश छुला के होते हैं ॥ 5 ॥
अपने पत्थर के पहाड़ों को हमेशा ही बड़े ,
ख़ुश मेरे सर पे वो रख-रख कर ढुला के होते हैं ॥ 6 ॥
ख़ुद को सोने के हमेशा बाँट रखकर औ मुझे ,
बाँझ मिट्टी के डलों से ख़ुश तुला के होते हैं ॥ 7 ॥
मेरी नींदों के लिए वो जागते हैं तब कहीं ,
ख़ुश मुझे सब रात लोरी गा सुला के होते हैं ॥ 8 ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...