Saturday, April 22, 2017

ग़ज़ल : 232 - मीर के दीवान बिकते हैं ?



कहीं पर रात में आधी ; सजे अरमान बिकते हैं ॥
कहीं पर दिन दहाड़े मौत के सामान बिकते हैं ॥
ख़रीदें ज्यों लतीफ़ों की किताबें लोग हाथों हाथ ,
नहीं क्यों दाग़ , ग़ालिब , मीर के दीवान बिकते हैं ?
कहीं पर लोग लोगों की बचा देते हैं जाँ यों ही ,
कहीं अपनों के अपनों पर किए एहसान बिकते हैं ॥
हवा मुँहमाँगी क़ीमत पे वहाँ बिकती है लेकिन मुफ़्त,
अगरबत्ती , इतर , क़ाफ़ूर औ लोबान बिकते हैं ॥
अगर लग जाएँ ऊँची बोलियाँ तो फिर जहाँ में सच ,
याँ अच्छे अच्छों के हाँ दीं , ज़मीर , ईमान बिकते हैं ॥
( लतीफों = चुटकुलों , दीवान = एक विशिष्ट प्रकार का ग़ज़ल संग्रह , इतर = इत्र , क़ाफ़ूर = कपूर , दीं = धर्म )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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