Sunday, November 30, 2014

मुक्तक : 648 - लुत्फ़ को अपने ही


लुत्फ़ को अपने ही हाथों से शूल करता हूँ ।।
जानते-बूझते ये कैसी भूल करता हूँ ?
जिसका हक़दार , न हूँ क़ायदे से मैं क़ाबिल ,
उसकी दिन-रात तमन्ना फिज़ूल करता हूँ ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, November 27, 2014

मुक्तक : 647 - कितनी मुद्दतों से


कि कितनी मुद्दतों से अब तलक भी दम बदम अटका ॥
बढ़ा मुझ तक कहाँ जाकर तेरा पहला क़दम अटका ?
तू जैसे भी हो आ जा देखने दिल से निकल अपलक ,
तेरे दीदार को मेरी खुली आँखों में दम अटका ॥
( दम बदम=निरंतर , दीदार=दर्शन , अपलक=बिना पलक झपके ,दम=प्राण )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति  

Wednesday, November 26, 2014

मुक्तक : 646 - अपना दूध–दही


अपना दूध - दही गाढ़ा औरों का पनीला बोलेगा ॥
अपनी सब्ज़ी का रंग हरा शेष का पीला बोलेगा ॥
अपने कंठ को बेचने की दूकान लगाए तो निस्संशय ,
अपना स्वर प्रत्येक गधा कोयल से सुरीला बोलेगा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 


Tuesday, November 25, 2014

मुक्तक : 645 - सब्ज़ कब सुर्ख़


सब्ज़ कब सुर्ख़ कब ? ये ज़र्द-ज़र्द लिखती है ॥
औरत-औरत ही लेखती न मर्द लिखती है ॥
चाहता हूँ मैं लफ़्ज़-लफ़्ज़ में ख़ुशी लिक्खूँ ,
पर क़लम मेरी सिर्फ़ दर्द-दर्द लिखती है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, November 23, 2014

मुक्तक : 644 - सीने में दिल


सीने में दिल सवाल उठाता है !!
मग्ज़े सर भी ख़याल उठाता है !!
सबके गुल पे ज़माना चुप मेरी ,
सर्द चुप पे बवाल उठाता है !!
(मग्ज़े सर = मस्तिष्क , गुल=हल्ला-गुल्ला )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, November 20, 2014

मुक्तक : 643 - सिर्फ़ होती है ख़ता


सिर्फ़ होती है ख़ता या कि भूल होती है ॥
ये नगीना नहीं ये ख़ाक-धूल होती है ॥
मैंने माना कि मोहब्बत में तू हुआ है फ़ना ,
फिर भी मत कह कि मोहब्बत फ़िजूल होती है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, November 19, 2014

मुक्तक : 642 - मेरे समझाने का

मेरे समझाने का अंदाज़-ओ-अदा समझे न वो ॥
चीख़ती ख़ामोशियों की चुप सदा समझे न वो ॥
बेवजह हँस-हँस के उनसे बातें क्या बेबात कीं ,
मैं नहीं रोया तो मुझको ग़मज़दा समझे न वो ॥-
डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, November 18, 2014

मुक्तक : 641 - दिल-दिमाग़


दिल-दिमाग़ कई-कई दिन झगड़े-लड़े मगर ॥
इश्क़ न करने की ज़िद पर ख़ूब अड़े मगर ॥
ना-ना करते-करते प्यार के मक्खन में ,
अज सर ता पा दोनों आख़िर गड़े मगर ॥
(अज सर ता पा = सिर से पाँव तक )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 






Monday, November 17, 2014

मुक्तक : 640 - एक-एक को दो


एक-एक को दो-तीन बनाने की फ़िक्र में ॥
सीटी को बंस-बीन बनाने की फ़िक्र में ॥
ताउम्र फड़फड़ाता दौड़ता फिरा किया,
बेहतर को बेहतरीन बनाने की फ़िक्र में ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, November 16, 2014

मुक्तक : 639 - ज़िंदगी में चाहे


ज़िंदगी में चाहे बस इक बार चौंकाता ॥
यक ब यक आकर मेरे दर-दार चौंकाता ॥
मैं मरूँ जिस दुश्मने जाँ पे ख़ुदारा सच ,
काश वो भी मुझको करके प्यार चौंकाता ॥
( यक ब यक=अचानक, दार=घर, ख़ुदारा=ईश्वर के लिए, काश=हे प्रभु )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, November 14, 2014

मुक्तक : 638 - गर्मी में बरसात


गर्मी में बरसात हो जाये ॥
मँगते की ख़ैरात हो जाये ॥
वीराँ में तुझसे जो मेरी सच ,
कुछ अंदर की बात हो जाये ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, November 13, 2014

मुक्तक : 637 - उनके तो ले ही गये


उनके तो ले ही गये सँग में हमारे ले उड़े ॥
इक नहीं दो भी नहीं सारे के सारे ले उड़े ॥
हमने रक्खे थे अमावस की निशा भर के लिए ,
जो जमा दीप ,जो जुगनूँ ,जो सितारे ,ले उड़े ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, November 12, 2014

मुक्तक : 636 - हाथ उठाकर


हाथ उठाकर आस्माँ से हम दुआ ॥
रात-दिन करते रहे तब ये हुआ ॥
कल तलक जिसके लिए थे हम नजिस ,
आज उसी ने हमको होठों से छुआ ॥
( नजिस = अछूत, अस्पृश्य , अपवित्र )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, November 11, 2014

मुक्तक : 635 - हँसता-हँसता ये



हँसता-हँसता ये शाद उठता है ॥
दर्द ये नामुराद उठता है ॥
दुबका रहता है सामने सबके ,
सबके जाने के बाद उठता है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, November 10, 2014

155 : ग़ज़ल - शायद मुझको कम दिखता है


शायद मुझको कम दिखता है ॥
ज़िंदा भी बेदम दिखता है ॥
वो मस्ती में गोते खाता ,
दीदा-ए-पुरनम दिखता है ?
छेड़ो मत उस चुप-चुप से को ,
पूरा ज़िंदा बम दिखता है ॥
जाने क्यों मुझको वो फक्कड़,
इक शाहे-आलम दिखता है ?
वैसे वो दारू है ख़ालिस ,
यों आबे-ज़मज़म दिखता है ॥
तुमको ही बस ब्रह्मा-हरि वो ,
मुझको किंकर-यम दिखता है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, November 9, 2014

मुक्तक : 634 - चीज़ आड़ी तो


चीज़ आड़ी तो पड़ी भी खड़ी सी लगती है ॥
बूँदा-बाँदी भी बला की झड़ी सी लगती है ॥
दूर लगता है क़रीं , पास दूर दिखता है ,
आँखों में कुछ तो बड़ी गड़बड़ी सी लगती है ॥
( क़रीं = पास )
डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, November 8, 2014

मुक्तक :633 - जब पूरी पाई


जब पूरी पाई ना आध ॥
थी जिसकी वर्षों से साध ॥
इस कारण कर बैठा हाय ,
उसकी हत्या का अपराध ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, November 7, 2014

मुक्तक : 632 - ख़ूब पुर्सिश और की


ख़ूब पुर्सिश और की तीमार बरसों तक ॥
हम रहे इक-दूजे के बीमार बरसों तक ॥
कब मिले आसानियों से हम ? जुदाई में
हिज्र की रो-रो सही थी मार बरसों तक ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, November 6, 2014

154 : ग़ज़ल - तेरी इच्छा


तेरी इच्छा तू उज्ज्वल या काला दे ।।
रँग कैसा भी रूप लुभाने वाला दे ।।1।।
निःसन्देह सकल उपवन की चाह नहीं ,
किन्तु मुझे प्रत्येक पुहुप की माला दे ।।2।।
मृदु वचनों को दे स्वातंत्र्य तू तितली सा ,
कटु-कर्कश वाणी को मोटा ताला दे ।।3।।
रक्त-स्वेद से सींचींं फसलों को कृपया ,
वर शीतलता मत बर्फीला पाला दे ।।4।।
 वस्त्रविहीनों को दे सूती पोशाकें ,
मत चीवर , बाघंबर या मृगछाला दे ।।5।।
बेघर को इक पर्णकुटी , मछली को कुआँ ,
खग को रहने नीड़ , मकड़ को जाला दे ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 631 - मेरी आँखों ने जो.


मेरी आँखों ने जो कल अपलक निहारा है ॥
वो विवशताओं का उल्टा खेल सारा है ॥
है अविश्वसनीय,अचरजयुक्त पर सचमुच ,
एक मृगछौने ने सिंहशावक को मारा है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, November 5, 2014

अकविता [ 6 ] : आईने.......


उनके कहे से ,
हमारी काक ध्वनि कोयल कुहुक हो जाएगी क्या ?
हमारी पिचकी-चपटी नाक नुकीली हो जाएगी क्या ?
उनके बारंबार कहते रहने से हमारा पजामा जींस नहीं हो जाएगा ।
कोई भूलकर भी
जब वह नहीं कहता
जो-जो हम सुनना चाहते हो ;
और तब हमारे पूछने से पहले ही
हमारे मन के अनुसार वे हमारे बौने क़द को हिमालय
हमारी कच्छप-चाल को चीता-गति कहते चले जाते हैं
जो
हम भली-भाँति जानते हैं कि यदि वे हमारे मातहत नहीं होते तो
हमारे खुरदुरेपन को कभी चिकनाई नहीं कह सकते थे ;
यदि हमसे भयग्रस्त नहीं होते तो
हमारी जली-भुनी रोटी को कभी भी मालपुआ नहीं कहते ।
अपनी बंदरिया को ऐसों के द्वारा सुंदरी , सुंदरी  पुकारे जाने पर
हमारा प्रसन्न होना आत्मवंचना  के सिवाय क्या है ?
ऐसे चापलूसों के बजाय
यदि हम सचमुच ही जानना चाहते हैं कि हम क्या हैं
तो
जो टुकड़े-टुकड़े होकर भी
सबकी असली सूरत का सच्चा बखान करते हैं
हमें सदैव
डटकर सामना करने की हिम्मत रखनी पड़ेगी
उन आईनों से ।  
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Tuesday, November 4, 2014

मुक्तक : 475 - अब मैं मल्हार


अब मैं मल्हार ; दीप-राग में बदल गया ॥
ठस बर्फ़ से पिघलती आग में बदल गया ॥
जज़्बात का रहा न तब से काम दोस्तों ,
सीने में जब से दिल दिमाग़ में बदल गया ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 630 - फिर हुआ ना कुछ


फिर हुआ ना कुछ मुकम्मल रह गया सब अधबना ॥
जुस्तजू में ज़िंदगी की ज़िंदगी कर दी फ़ना ॥
जब फँसा दिल के गले में इश्क़ का लुक़मा मेरे ,
ना निगलते ही बना  ना तो उगलते ही बना ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, November 3, 2014

मुक्तक : 629 - साधु-संतों से


साधु-संतों से जटा-जूट-मूँछ धारी में ॥
ईश्वरोपासना में रत-सतत पुजारी में ॥
काम का भाव लेश मात्र भी न था तब तक ,
तुझको देखा न था जब तक उ ब्रह्मचारी में ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Sunday, November 2, 2014

अकविता [ 5 ] : अच्छा कवि............


मेरे आत्मीय फ़ेसबुक पाठकों
 ,
क्यों आप कहते रहते हो
कि लिखता हूँ 'मैं'  'उससे' अच्छा
'जो' मुझसे कई सालों बाद जन्मा और
कविताई में उतरा ?
किन्तु फिर क्यों 'उसे'
अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों में
आमंत्रित किया जाता है ?
'मुझे' गाँव की घरेलू काव्य-गोष्ठियों से भी निमंत्रण नहीं मिलता !
क्या है आपके पास इसका कोई उत्तर ?
क्या आप मेरी पोस्ट की गई कविता को
सदैव लाइक करके
उस पर फ़ेसबुकिया लिहाज वश
बिना पढे ही वाह का कमेन्ट करते रहते हो ?
क्यो ?
क्या आपको नहीं पता ?
लोग कहते हैं कि
अच्छे कवि का पैमाना है -
उसे कवि सम्मेलनों में बुलाया जाना ।
तो वह मुझसे अच्छा कवि हुआ
न कि मैं ।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

अकविता [ 4 ] : पुनर्जन्म


बारंबार अपनी गलतियों से प्राप्त असफलताओं ने
मेरे मन में  दृढ़ किया था यह विचार कि
आज जब सब कुछ लुट चुका है
अक़्ल आई मुझमें
तो सोचा कि आत्महत्या कर लूँ
और ले लूँ पुनर्जन्म –
इस संकल्प के साथ कि
अब भूले से कोई भूल नहीं दोहराऊँगा
और ठीक तभी तूने अवतार लिया है
तो जीते जी ही
मैंने तुझे
सम्पूर्ण विश्वास से अपना पुनर्जन्म मान लिया है ।
और पूर्व जन्म की सम्पूर्ण स्मृतियों के साथ तुझे स्वयं मानकर
ऐसा तैयार करूँगा
कि किसी की कृपादृष्टि के बिना ही
तेरे अपने सद्प्रयासों से अवश्यमेव पूर्ण हो
तेरी प्रत्येक सद इच्छा ।
मैं तो रहा
बस ख़्वाब देखता शेख़चिल्ली
तू जो चाहेगी वो पाके रहेगी
मैं अनपढ़ ऐसी शिक्षा तुझे दिलवाऊँगा ।
मैं आलसी था तुझे स्फूर्तिवान बनाऊँगा ।
मैं अनुशासनहीन तुझे अनुशासन का जीवन में महत्व समझाऊँगा ।
मैं केवल कहता था तुझको कर्मठ बनाऊँगा ।
मैं मोहग्रस्त रहा तुझे त्यागमयी बनाऊँगा ।
मैं मुफ़्त का अभिलाषी रहा ;
तुझे सब कुछ अपने परिश्रम से मूल्य चुकाकर
क्रय कर सकने के सक्षम बनाऊँगा ।  
मैं सुप्त रहा तुझे जाग्रत बनाऊँगा ।
मैं रोता-रुलाता तुझे हँसना-हँसाना सिखाऊँगा ।
मैं सदैव पीछे-पीछे चला किन्तु तुझे पथप्रदर्शक बनाऊँगा ।  
कुल मिलाकर मैं यह कह रहा हूँ कि
मैं अत्यंत साधारण अपरिचित बन के रहा
तुझे असाधारण और सुप्रसिद्ध बनाने के लिए
हर संभव प्रयास करूँगा ।
मैं तुझे गलती से भी कोई गलती नहीं करने दूँगा ।
आज तेरे जन्म पे तेरे पिता का
ये अटल वादा है तुझसे ।
,
मेरी 
बिलकुल मेरा ही प्रतिरूप ,
बेटी ।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...