Thursday, July 30, 2015

फाँसी की सज़ा

    फाँसी की सज़ा को लेकर सबके अपने-अपने तर्क हैं कि यह सही है अथवा गलत किन्तु मेरी स्पष्ट धारणा है कि यह अपराध की प्रकृति और उद्देश्य पर निर्भर रखना चाहिए । दूसरी बात यह कि समस्त संसार में सज़ा के स्वरूप पर ही सायास किए जाने वाले अपराध से पूर्व अपराधियों का ध्यान अवश्यमेव रहता है कि वह पकड़े जाने पर किस हद तक सरलता पूर्वक सहने योग्य है अथवा कठोरता की किस सीमा तक असहनीय । सज़ाओं को कठोर अथवा यातनापूर्ण न रखे जाने का तथाकथित मानवतापूर्ण विचार मुझे तो आज तक पल्ले नहीं पड़ा । अवयस्कों के मामले में भी हमें अपनी करुणा को तनिक विश्राम देना होगा क्योंकि जानबूझकरसोचसमझकर गंभीर अपराध करने वालों को हम उम्र के आधार पर छूट देकर भी ठीक नहीं कर रहे । दंड की भयानकता का भय ही तो हमें ग़लत कार्य करने से रोकता है । जिन सज़ाओं के तहत गंभीर अपराध करने वाले अत्यंत प्रभावशाली अथवा खौफ़नाक क़ैदी जेलों में बिना किसी कष्ट बल्कि सुविधासम्पन्न अवस्था में रहते हों औचित्यहीन हैं वे सज़ाएँ ? करुणा के सिद्धान्त अथवा कृत्रिम मानवता की आड़ में जन्मजात कुत्तों की पूँछों को सीधा करने के प्रयास सर्वथा ऐसे प्रयोग हैं जिनके परिणाम हमें पता हैं फिर भी ऐसे प्रयोगों की निरंतरता समझ से परे है । कुल मिलाकर मैं तो यही कहूँगा कि दोषसिद्ध अपराधियों को अपराध की प्रकृति और उद्देश्य की भयानकता के आधार पर कठोरतम दण्ड का प्रावधान सदैव रहना चाहिए एवं विशिष्ट अपराधों में फाँसी की सज़ा भी समाप्त नहीं होना चाहिए 
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, July 28, 2015

मुक्तक : 738 - तुम मर चुके हो ॥



कुछ ऐसा मेरे दिल पे अपना क़ब्ज़ा कर चुके हो ॥
यूँ ख़्वाबों में , ख़यालों में लबालब भर चुके हो ॥
ज़माना कह रहा है तुम ज़माने में नहीं अब,
यकीं मुझको नहीं आता मगर तुम मर चुके हो ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, July 27, 2015

मुक्तक : 737 - बरगद के झाड़ ॥



दुनिया के कैसे - कैसे झाड़ी - झंखाड़ ?
कहलाते शीशम-पीपल-बरगद के झाड़ ॥
करके दूबाकार कुछ इक बौनी रचनाएँ ,
विज्ञापन में उनको दिखला-दिखला ताड़ !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, July 26, 2015

मुक्तक : 736 - आँखें नहीं माँगूँ ?



मुझे लाज़िम नहीं इक शम्अ , हरगिज़ भी न इक जुगनूँ  ?
मैं अंधा हो के भी क्यों भीख में आँखें नहीं माँगूँ  ?
तो सुन - दिन-रात याँ रहती हुक़ूमत सिर्फ़ अँधेरों की ,
मना है देखने की बात भी करना न है मौजूँ  !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Saturday, July 25, 2015

मुक्तक : 735 - है युवा पुरुषार्थ कर


( चित्र गूगल सर्च से साभार )
हर घड़ी आलस्य में पड़ लेट कर ॥
मत बढ़ा चर्बी बड़ा मत पेट कर ॥
है युवा पुरुषार्थ कर भरसक अरे ,
सो के जीवन को न मटिया मेट कर ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, July 24, 2015

मुक्तक : 734 - ज़िंदगी यह मौत सी......


( चित्र गूगल सर्च से साभार )
सिर्फ़ दो या चार ही दम को मिली ॥
उसपे तुर्रा यह फ़क़त ग़म को मिली ॥
किस सज़ा को उस ख़ुदा से इस क़दर ,
ज़िंदगी यह मौत सी हमको मिली ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, July 22, 2015

मुक्तक : 733 - उसका अर्मान था




उसका बेशक़ मैं कभी भी नहीं हबीब रहा ।।
उसके दिल ही के न घर के कभी क़रीब रहा ।।
उसका अर्मांं था मैं कातिब अमीर होता बड़ा ,
मेरी क़िस्मत ! मैं हमेशा ग़रीब-अदीब रहा ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Sunday, July 19, 2015

मुक्तक : 732 - तक़दीर से तक़रार से ॥


जीत की हसरत लिए हासिल क़रारी हार से ,
प्यार के बदले लगाती ज़िंदगी की मार से ;
इतना आज़िज़ आ चुका हूँ मैं कि तौबा दूर ही -
अब तो रहना है मुझे तक़्दीर से तक़रार से ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, July 18, 2015

मुक्तक : 731 - पलँग-खाट वाले ॥


भटकते फिरें राजसी-बाट वाले ॥
ज़मीं पर पड़े हैं पलँग-खाट वाले ॥
बना दी है वो वक़्त ने उनकी हालत ,
रहे अब न घर के न वो घाट वाले ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, July 17, 2015

मुक्तक : 730 - केले के छिलके



( चित्र गूगल सर्च से साभार )

केले के छिलके को न फैली काई बना दो ॥
पतली दरार को न चौड़ी खाई बना दो ॥
संशय के पर्वतों को शक्य हो तो उसी क्षण ,
विश्वास से मिटा दो या कि राई बना दो ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Thursday, July 16, 2015

मुक्तक : 729 - टाँगें उल्टी वो मोड़ता है


टाँगें उल्टी वो मोड़ता है न आँखों को ही वो फोड़ता ॥
ना उखाड़े वो चोंच ना गरदन मरोड़ के तोड़ता ॥
है परिंदों का ऐसा दुश्मन मारता न कभी उन्हें ,
बाँध पिंजरे में डाल देता या पर क़तर के वो छोड़ता ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

( चित्र गूगल सर्च से साभार )

Wednesday, July 15, 2015

मुक्तक : 728 - भूल हमने क्यों यही की



बिन्दु को जिसने हज़ारों बार सिन्धु समझ लिया ;
सिन्धु को क्या सोच अनगिन बार बिन्दु समझ लिया ?
भूल हमने क्यों यही की बार-बार उसके लिए ,
ना समझना था समझदार उसको किन्तु समझ लिया ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, July 12, 2015

167 : ग़ज़ल - उसकी ख़िलाफ़त की थी ॥



लम्हा भर भी न मुझे जिसने मोहब्बत की थी ,
मैंने उसकी ही शबोरोज़ इबादत की थी !!
बेनसीबी का फ़साना मैं कहूँ क्या अपनी ?
मुझसे अपनों ने सरेआम बग़ावत की थी !!
मानता क्या मैं बुरा यारों की बातों का , हाँ ?
मैंने भूले न अदू की भी शिकायत की थी !!
जिसका दुनिया में कहीं कोई तरफ़दार न था ,
सिर्फ़ मैंने न कभी उसकी ख़िलाफ़त की थी ॥
उसने बख़्शा न मुझे एक ख़ता पर जिसके ,
मैंने कितने ही गुनाहों पे रिआयत की थी ॥
टूट और फूट गया वो भी बुरा ही आख़िर ,
मैंने जाँ से भी अधिक जिसकी हिफ़ाज़त की थी ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, July 11, 2015

मुक्तक : 727 - मुझपे पत्थर चला ॥




सबसे छुपकर न सबसे उजागर चला ॥
तू न थपकी न चाँटे सा कसकर चला 
काँच का टिमटिमाता हुआ बल्ब हूँ ,
मत किसी ढंग से मुझपे पत्थर चला ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


मुक्तक : 726 - सोने में मज़ा आता है ॥


गाह चुपचाप कभी ढोल बजा आता है ॥
रोज़ ख़्वाबों में वो भरपूर सजा आता है ॥
मैं नहीं नींद का ख़ादिम हूँ मगर सच बोलूँ ,
उसके दीदार को सोने में मज़ा आता है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, July 10, 2015

गीत : 37 - माधुरी पकड़ ली ॥


कंगन नहीं मिला तो हमने चुरी पकड़ ली ॥
छूटा महानगर तो छोटी पुरी पकड़ ली ॥
कर-कर इलाज हारे पर रोग ना घटा जब ,
अपनी जगह से तिल भर दुःख-कष्ट ना घटा जब ,
औषधियाँ छोड़ हाथों में माधुरी पकड़ ली ॥
ईमानदारियों का पाया सिला बुरा जब ,
अच्छाइयों का बदला अक्सर मिला बुरा जब ,
हमने भी राह धीरे-धीरे बुरी पकड़ ली ॥
लिख-लिख के हमने देखा कुछ भी नहीं हुआ जब ,
हथियार भूलकर भी कोई नहीं छुआ जब ,
तजकर कलम करों में पैनी-छुरी पकड़ ली ॥
( चुरी=चूड़ी , पुरी=नगरी , माधुरी=शराब )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, July 8, 2015

166 : ग़ज़ल - मैं मस्ख़रा लिखूँ ?


हल्दी से पीले तुमको कैसे मैं हरा लिखूँ ?
हो रिक्त तुम तो क्यों तुम्हें भरा-भरा लिखूँ ?
विधिवत् तुम्हारी साँसे चल रही हैं , है पता
कुछ बात है मैं तुमको अनवरत मरा लिखूँ !
क्या इसलिए कि तुम प्रगाढ़ मित्र हो मेरे ,
पीतल को भी तुम्हारे स्वर्ण मैं खरा लिखूँ ?
उत्साह ,शक्ति ,स्वप्न और त्वरा से हीन जो
यौवन हो ,कैसे मैं उसे नहीं जरा लिखूँ ?
धंधा तुम्हारा जब रुदन-विलाप का ही है ,
सर्कस का तुमको फिर मैं कैसे मस्ख़रा लिखूँ ?
सच बोलने का दृढ़प्रतिज्ञ हूँ अतः सदा
चोली को चोली ,घाघरे को घाघरा लिखूँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, July 7, 2015

विचार : लड़की पैदा करना अनिवार्य है


          कल खुद पर केरोसीन  छिड़ककर अत्महत्या करने वाली एक निःसंतान महिला का मृत्युपूर्व बयान कि ''परिवार एवं मोहल्ले वाले उसे बांझ-बांझ कहकर चिढ़ाते थे जिससे तंग आकर उसे यह कदम उठाना पड़ा '' यदि सत्य है तो अत्यंत दुर्भाग्य पूर्ण है कि क्यों अब भी हम '' बच्चा गोद लेने से कतराते है '' एवं वे लोग कठोरतम दंड के पात्र हैं जो ऐसी आत्महत्याओं के प्रेरक हैं । इसके अलावा मैं तो कहता हूँ कि जनसंख्या-विस्फोट के इस युग में जिनके बच्चे नहीं हैं उन्हे तो पुरस्कृत किया जाना चाहिए ! पुनश्च , आश्चर्यजनक किन्तु सत्य कि आज भी हमारे यहाँ  महिला-आत्महत्या का एक कारण यह भी रहा  है कि वे निःसंतान नहीं थीं  बल्कि यह कि वे कई बच्चियों की माँ थीं किन्तु एक लड़का पैदा नहीं कर सकीं !!!!!!!! आज भी लोग लड़कियों को लड़के की तुलना में हेय समझते हैं यह अत्यंत पक्षपातपूर्ण , अन्यायपूर्ण और हानिकारक है और यही आलम रहा तो एक दिन जब लिंगानुपात भयावह ढंग से बिगड़ जाएगा _धर्मग्रंथों में निश्चय ही यह लिखा जाएगा कि ''पितृ-ऋण से उऋण होने के लिए एक लड़की पैदा करना अनिवार्य है ।'' सरकार को इस भेदभाव को खत्म करने हेतु धर्मग्रंथों में ऐसी बात जुडवानी होगी क्योंकि हम बाहर से धर्मान्ध लोग धर्म के नाम पर सब कुछ करने पर तत्काल तैयार हो जाते हैं भले ही अंदर से नास्तिक अथवा धर्मविरुद्ध हों ।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, July 6, 2015

मुक्तक : 725 - दुश्मन को मैंने


इक ही न बार बल्कि बार-बार किया है ॥
यूँ ही नहीं हमेशा यादगार किया है ॥
मत कोई मेरी बात पर यक़ीन करे पर ,
दुश्मन को मैंने अपने सच ही प्यार किया है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, July 5, 2015

मुक्तक : 724 - दो ग़ज़ ज़मीन


दो ग़ज़ ज़मीन अपने दफ़्न को क्या माँग ली ?
पैरों तले कि भी ज़मीन उसने खींच ली !!
मेरे ही हक़ को मार के वो शाह हो गया ,
मैं बेतरह पुकारता रहा अली-अली ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...