Sunday, July 12, 2015

167 : ग़ज़ल - उसकी ख़िलाफ़त की थी ॥



लम्हा भर भी न मुझे जिसने मोहब्बत की थी ,
मैंने उसकी ही शबोरोज़ इबादत की थी !!
बेनसीबी का फ़साना मैं कहूँ क्या अपनी ?
मुझसे अपनों ने सरेआम बग़ावत की थी !!
मानता क्या मैं बुरा यारों की बातों का , हाँ ?
मैंने भूले न अदू की भी शिकायत की थी !!
जिसका दुनिया में कहीं कोई तरफ़दार न था ,
सिर्फ़ मैंने न कभी उसकी ख़िलाफ़त की थी ॥
उसने बख़्शा न मुझे एक ख़ता पर जिसके ,
मैंने कितने ही गुनाहों पे रिआयत की थी ॥
टूट और फूट गया वो भी बुरा ही आख़िर ,
मैंने जाँ से भी अधिक जिसकी हिफ़ाज़त की थी ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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