फाँसी की सज़ा को लेकर सबके अपने-अपने
तर्क हैं कि यह सही है अथवा गलत किन्तु मेरी स्पष्ट धारणा है कि यह अपराध की
प्रकृति और उद्देश्य पर निर्भर रखना चाहिए । दूसरी बात यह कि समस्त संसार में सज़ा
के स्वरूप पर ही सायास किए जाने वाले अपराध से पूर्व अपराधियों का ध्यान अवश्यमेव
रहता है कि वह पकड़े जाने पर किस हद तक सरलता पूर्वक सहने योग्य है अथवा कठोरता की
किस सीमा तक असहनीय । सज़ाओं को कठोर अथवा यातनापूर्ण न रखे जाने का तथाकथित
मानवतापूर्ण विचार मुझे तो आज तक पल्ले नहीं पड़ा । अवयस्कों के मामले में भी हमें
अपनी करुणा को तनिक विश्राम देना होगा क्योंकि जानबूझकर–सोचसमझकर गंभीर
अपराध करने वालों को हम उम्र के आधार पर छूट देकर भी ठीक नहीं कर रहे । दंड की
भयानकता का भय ही तो हमें ग़लत कार्य करने से रोकता है । जिन सज़ाओं के तहत गंभीर
अपराध करने वाले अत्यंत प्रभावशाली अथवा खौफ़नाक क़ैदी जेलों में बिना किसी कष्ट
बल्कि सुविधासम्पन्न अवस्था में रहते हों औचित्यहीन हैं वे सज़ाएँ ? करुणा के सिद्धान्त अथवा कृत्रिम मानवता की आड़ में जन्मजात कुत्तों की
पूँछों को सीधा करने के प्रयास सर्वथा ऐसे प्रयोग हैं जिनके परिणाम हमें पता हैं
फिर भी ऐसे प्रयोगों की निरंतरता समझ से परे है । कुल मिलाकर मैं तो यही कहूँगा कि
दोषसिद्ध अपराधियों को अपराध की प्रकृति और उद्देश्य की भयानकता के आधार पर कठोरतम
दण्ड का प्रावधान सदैव रहना चाहिए एवं विशिष्ट अपराधों में फाँसी की सज़ा भी समाप्त
नहीं होना चाहिए ।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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