Wednesday, July 8, 2015

166 : ग़ज़ल - मैं मस्ख़रा लिखूँ ?


हल्दी से पीले तुमको कैसे मैं हरा लिखूँ ?
हो रिक्त तुम तो क्यों तुम्हें भरा-भरा लिखूँ ?
विधिवत् तुम्हारी साँसे चल रही हैं , है पता
कुछ बात है मैं तुमको अनवरत मरा लिखूँ !
क्या इसलिए कि तुम प्रगाढ़ मित्र हो मेरे ,
पीतल को भी तुम्हारे स्वर्ण मैं खरा लिखूँ ?
उत्साह ,शक्ति ,स्वप्न और त्वरा से हीन जो
यौवन हो ,कैसे मैं उसे नहीं जरा लिखूँ ?
धंधा तुम्हारा जब रुदन-विलाप का ही है ,
सर्कस का तुमको फिर मैं कैसे मस्ख़रा लिखूँ ?
सच बोलने का दृढ़प्रतिज्ञ हूँ अतः सदा
चोली को चोली ,घाघरे को घाघरा लिखूँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

1 comment:

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद । शास्त्री जी ।

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