Saturday, April 30, 2016

ग़ज़ल : 186 - कच्ची-पक्की शराब की बातें ॥




पैर लटके हैं क़ब्र में फिर भी , बस ज़ुबाँ पे शबाब की बातें ।।
लोग हँसते हैं सुनके सब ही तो , शेख़चिल्ली-जनाब की बातें ।।
दाँत मुँह में नहीं रहे उनके ,  न आँतें हैं पेट में बाक़ी ,
करते रहते हैं फिर भी जब देखो , तब ही मुर्ग़-ओ-क़बाब की बातें 
भैंस के ही समान लगते हैं उनको घनघोर काले अक्षर भी ,
मुँह से उनके मगर हमेशा ही , आप सुनना किताब की बातें ।।
आप मानेंगे कब मेरी लेकिन , मैंने नासेह के सुनी मुँह से ,
अपने कानों से ख़ुद के कल सचमुच , कच्ची-पक्की शराब की बातें ।।
साँस लेने में भी है उनको सच , हाय तक्लीफ़ दाढ़ दुखने सी ,
और करते हैं सूँघने की वो , सिर्फ इत्रे-गुलाब की बातें ।।
उनके सर के न टोप की बातें , ना गले के हसीं दुपट्टे की ,
जब भी करते हैं वो तो पाँवों के , उनके जूते-जुराब की बातें ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, April 24, 2016

मुक्तक : 826 - जोड़-तोड़ कर



जोड़-घटाकर जैसे-तैसे इक घर बनवाया ॥
पर कुदरत को मेरा यह निर्माण नहीं भाया ॥
रात अचानक जब इसमें सब सोए थे सुख से ,
छोड़ मुझे कुछ भी न बचा ऐसा भूकंप आया ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 825 - जब चाहे तू छुड़ाले ॥



भूखा है तो चबाकर 
जी भर के मुझको खाले ॥
प्यास अपनी क़तरा-क़तरा
 खूँ चूसकर बुझाले ॥
मालिक है तू मेरा , हर
इक हक़ है मुझपे तेरा ,
जो चाहिए मेरा सब 
जब चाहे तू छुड़ाले ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Saturday, April 23, 2016

मुक्तक : 824 - चूमेगी कह-कह बालम ॥



हँसके जीने भी नहीं देते जो लोग आज मुझे ,
मेरे मरने पे मनाएँगे ग़ज़ब का मातम ।।
आज लगती है मेरी चाल उन्हें बेढब सी ,
कल मेरे तौर-तरीक़ों पे चलेगा आलम ।।
वक़्त बेशक़ जो मुझे आज दुलत्ती मारे ,
बात तक़्दीर मेरी कोई भी सुनती न अभी ;
लेकिन इक रोज़ दुलारेगा यही वक़्त मुझे ,
ये ही तक़्दीर मुझे चूम कहेगी बालम ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Tuesday, April 19, 2016

मुक्तक : 823 - सौभाग्य–लेखन



चाहता था मेरे हाथों में तेरा मन-हाथ होता ॥
स्वर्ग से ले नर्क तक तू मेरे हर छन साथ होता ॥
मिल के सारे काट लेते रास्ते काँटों भरे हम ,
किन्तु कब सबके लिए सौभाग्य-लेखन माथ होता ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, April 17, 2016

मुक्तक : 822 - कागज से भी पतली




कागज से भी पतली या फिर ग्रंथों से भी मोटी से ॥
सागर से भी ज्यादा विस्तृत या बूँदोंं से छोटी से ॥
ताजा-ताजा अंगारे सी या हिम सी ठण्डी बासी ,
मिलवा दो प्राचीन क्षुधा को सद्यावश्यक रोटी से ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, April 14, 2016

185 : ग़ज़ल - खलबली



बात अच्छी भी आज उसकी क्यों खली हमको ?
जिसकी बकबक भी कल तलक लगी भली हमको ॥
 क्या हुआ आज कह रहा हमें वही काँटा ,
जो चुभन में भी बोलता था गुल-कली हमको ?
आज कहता है क्यों हमें वो अद्ना , मामूली ,
कल जो कहता फिरे था रात-दिन वली हमको ?
अपनी आमद से तो रुकें बड़े-बड़े तूफ़ाँ ,
उसने फिर किस बिना पे बोला खलबली हमको ?
भूल बैठा है वो जो वाँ हमारी सूरत भी ,
याद रहती है उसके घर की हर गली हमको ॥
उनका दम घुट गया ग़ुबार देखते ही वाँ ,
गर्द में जी यहाँ न कास तक चली हमको ॥
सबको तलकर खिलाईं उसने पूरियाँ मीठी ,
सख़्त मोटी औ' कच्ची रोट अधजली हमको ॥
यों तो पहले भी कहते थे भला-बुरा लेकिन ,
आज गाली ही बक दी वो बहुत खली हमको ॥
( वली = महात्मा , कास = खाँसी )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, April 13, 2016

मुक्तक : 821 - अर्क-ए-गुलाब




पानी तलब करो मैं ला दूँ अर्क-ए-गुलाब ॥ 
गर तुम कहो तो इक सफ़्हा क्या लिख दूँ मैं किताब ॥ 
हसरत है तुम जो माँँगो दूँ वो उससे बढ़के तुमको ,
बदले में दो जो अपना सच्चा प्यार बेहिसाब ॥ 

-डॉ. हीरालाल प्रजापति



Sunday, April 10, 2016

गीत : 42 - क्या किसी भूले हुए.....

क्या किसी भूले हुए ग़म की याद आने लगी ?
हँसते - हँसते हुए क्यूँ आँख छलछलाने लगी ?
क्या किसी भूले हुए..........................
आँख कस - कस के भी लगाए लग न पाती है ।
रात करवट बदल - बदल के बीत जाती है ।
लोग खो जाते हैं सपनों में झपकते ही पलक ।
हमको क्यूँ नींद भी इक ख़्वाब नज़र आती है ?
मुश्किलों से ही हुआ था अभी आराम नसीब ,
कोई तक्लीफ़ तभी फ़िर से सिर उठाने लगी ॥
क्या किसी भूले हुए..........................
हमको तपने का नहीं शौक़ फ़िर भी तपते हैं ।
धूप अप्रेल - मई दोपहर की सहते हैं ।
हमको शोलों से मुलाक़ात की कब चाह रहे ?
होके मज़्बूर ही सूरज से हम लिपटते हैं ।
आज मौक़ा जो मिला चाँद को छूने का हमें ,
चाँदनी उसकी मैं हैराँ हूँ क्यूँ जलाने लगी ?
क्या किसी भूले हुए..........................
हँसते - हँसते हुए..............................

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Friday, April 8, 2016

184 : ग़ज़ल - मैं फ़िदा था



कैसी भी हो ताती-बासी-पतली-मोटी ॥
भूख में आँखों में नचती सिर्फ़ रोटी ॥
कान काटे है बड़े से भी बड़ों के ,
उम्रो क़द में छोटे छोटों से वो छोटी ॥
मैं फ़िदा था जिसपे वो जाने क्यों उसने ,
जड़ से ही कटवा दी घुटनों तक की चोटी ॥
लोटता है ज्यों गधा धरती पे मेरी ,
नर्म बिस्तर पर न कबसे नींद लोटी ?
वो मुझे इतना ज़रूरी है क़सम से ,
भूख में कुत्ते को ज्यों होती है बोटी ॥
आजकल साहिल पे भी हम डूबते हैं ,
पहले तो इतनी न थी तक़्दीर खोटी ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, April 4, 2016

मुक्तक : 820 - गुलों की शक्ल



गुलों की शक्ल में दरअस्ल यह बस ख़ार होती है ॥
लगा करती है दरवाज़ा मगर दीवार होती है ॥
हक़ीक़त में ही हम यारों न पैदा ही हुए होते ,
अगर यह जान जाते ज़िंदगी दुश्वार होती है ॥
 ( गुल = पुष्प , ख़ार = काँटा )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...