Monday, April 4, 2016

मुक्तक : 820 - गुलों की शक्ल



गुलों की शक्ल में दरअस्ल यह बस ख़ार होती है ॥
लगा करती है दरवाज़ा मगर दीवार होती है ॥
हक़ीक़त में ही हम यारों न पैदा ही हुए होते ,
अगर यह जान जाते ज़िंदगी दुश्वार होती है ॥
 ( गुल = पुष्प , ख़ार = काँटा )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

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मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...