Saturday, April 30, 2016

ग़ज़ल : 186 - कच्ची-पक्की शराब की बातें ॥




पैर लटके हैं क़ब्र में फिर भी , बस ज़ुबाँ पे शबाब की बातें ।।
लोग हँसते हैं सुनके सब ही तो , शेख़चिल्ली-जनाब की बातें ।।
दाँत मुँह में नहीं रहे उनके ,  न आँतें हैं पेट में बाक़ी ,
करते रहते हैं फिर भी जब देखो , तब ही मुर्ग़-ओ-क़बाब की बातें 
भैंस के ही समान लगते हैं उनको घनघोर काले अक्षर भी ,
मुँह से उनके मगर हमेशा ही , आप सुनना किताब की बातें ।।
आप मानेंगे कब मेरी लेकिन , मैंने नासेह के सुनी मुँह से ,
अपने कानों से ख़ुद के कल सचमुच , कच्ची-पक्की शराब की बातें ।।
साँस लेने में भी है उनको सच , हाय तक्लीफ़ दाढ़ दुखने सी ,
और करते हैं सूँघने की वो , सिर्फ इत्रे-गुलाब की बातें ।।
उनके सर के न टोप की बातें , ना गले के हसीं दुपट्टे की ,
जब भी करते हैं वो तो पाँवों के , उनके जूते-जुराब की बातें ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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