Thursday, April 30, 2015

मुक्तक : 705 - ग़म बड़े मिले ॥


बैठे कहीं , कहीं - कहीं खड़े-खड़े मिले ॥
कुछ ख़ुद ख़रीदे कुछ नसीब में जड़े मिले ॥
तिल-राई ज़िंदगी में ताड़ औ पहाड़ से ,
हँस-रो के ढोने दिल के सर को ग़म बड़े मिले ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, April 29, 2015

मुक्तक : 704 - सचमुच आरामदेह है



नर्म गद्दे पे छाई नर्म रेशमी चद्दर ।।
सचमुच आरामदेह है बहुत मेरा बिस्तर ।।
चूर थककर हूँ नींद भी भरी है आँखों में ,
फिर सबब क्या है जो मैं बदलूँ करवटें शब भर ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, April 26, 2015

मुक्तक : 703 ( B ) - तन-मन में भर दे आग


अधि ,अद्वितीय ,अति अतुल्य ,अरु अनूप से ॥
तन-मन में भर दे आग ऐसे त्रिय-स्वरूप से ॥
स्वस्तित्व को बचाने बर्फ़-ब्रह्मचारियों ,
बचना सदैव जलती-चिलचिलाती धूप से ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, April 25, 2015

मुक्तक : 703 - ऐश-ओ-आराम की


ऐश-ओ-आराम की हसरत
 अज़ाब से पूरी ।।
आब-ए-ज़मज़म की ज़रूरत शराब से पूरी ।।
क्या बताएँ रे तुझे कैसे-कैसे की हमने ?
बारहा तेरी तलब सिर्फ़ ख़्वाब से पूरी !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, April 22, 2015

162 : ग़ज़ल - आईना पारा वाला



आईना पारा वाला बंदर का देख ।।
हैराँ हूँ शीशे का घर पत्थर का देख ।।1।।
बाहर से वह लगती गंगा-जमुना ठीक ,
छी ! उसको पाया नाली अंदर का देख ।।2।।
इतना अलसाया था जा लेटा फ़िलफ़ौर ,
कुछ ना सोचा बिस्तर भी खंज़र का देख ।।3।।
कुछ तो राज़ है वर्ना यूँ ही भूखा शेर ,
क्यों नाँँ हो हम्लावर झुण्ड बक़र का देख ?4।।
( बक़र = गाय , बैल )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Tuesday, April 21, 2015

मुक्तक : 702 ( ( B ) - ये पचहत्तरवाँ साल है ॥




वज़्नी ज़ईफ़ी में भी जवाँ ये मलाल है ॥
उनसे जुदाई का ये पचहत्तरवाँ साल है ॥
इस सिन में और कुछ न रहे याद पर उनका ,
हर वक़्त जेह्नो दिल में बराबर ख़याल है ॥
( वज़्नी ज़ईफ़ी=भारी बुढ़ापा ,मलाल=दुःख ,सिन=उम्र )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति




Monday, April 20, 2015

मुक्तक : 702 - बस तुम ही मुब्तसिम !


इक लफ़्ज़ ग़म के नाम का नहीं ज़बान पर ॥

आँखेँ  नहीं दिखाई दें कभी भी तर-ब-तर ॥

इस अश्क़ अफ़्साँ दनिया में तुम्हीं हो मुब्तसिम ,

सचमुच हो शादमाँ कि सिर्फ़ आओ तुम नज़र ?

( अश्क़ अफ़्साँ =रोने वाला  ,मुब्तसिम=मुस्कुराने वाला ,शादमाँ=आनंदित  )

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, April 19, 2015

161 : ग़ज़ल - छुपाने की कोशिश ॥



नुमूदार को ना दिखाने की कोशिश ॥
दिखाने की है सब छुपाने की कोशिश ॥
ये क्या है अड़ा टाँग पहले गिराकर ,
बहुत प्यार से फिर उठाने की कोशिश ?
ये दे के क़सम तुमको हम ना भुलाएँ ,
हमें याद कर-कर भुलाने की कोशिश ॥
कि दफ़्तर में अफ़सर की हर मातहत को ,
पले बंदरों सा नचाने कि कोशिश ॥
वो तालीम क्या बचपने से ही जिसमें ,
हो बच्चों को बूढ़ा बनाने की कोशिश ?
( नुमूदार=प्रकट ,तालीम=शिक्षा )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Saturday, April 18, 2015

मुक्तक : 701 -तुझमें ख़राबी है ॥





फ़क़त इक ही मगर सबसे बड़ी तुझमें ख़राबी है ।।
ज़रा रुक ! सुन ! तुझे रहती हमेशा क्यों शिताबी है ?
सुनें क्यों होश वाले होश की बातें तेरी बतला ?
कि जब बदनाम तू इस शह्र में ख़ालिस शराबी है ।।
( फ़क़त=मात्र ,शिताबी=शीघ्रता , शह्र=नगर ,ख़ालिस=केवल और केवल )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


Friday, April 17, 2015

मुक्तक : 700 - फ़ौलाद मोम सा पिघले ॥


कभी जो बर्फ़ में फ़ौलाद मोम सा पिघले ।।
ग़ज़ाल शेर को ज़िंदा पटक उठा निगले ।।
भुला चुका हूँ उन्हें तुम ये मानना उस दिन ,
कि मेरी आँख से जिस दिन भी दर्या ना निकले ।।
( ग़ज़ाल=हिरण का बच्चा , दर्या=नदी )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Thursday, April 16, 2015

मुक्तक : 699 - नहीं रहता हूँ मैं अब होश में ?


मुझसी ग़फ़्लत तो नहीं होगी किसी मयनोश में ॥
पूछिए तो क्यों नहीं रहता हूँ मैं अब होश में ?
भागते थे जो मेरे साये से भी वो आजकल ,
बैठते हैं ख़ुद--ख़ुद आकर मेरी आगोश में ॥
( ग़फ़्लत=बेहोशी ,मयनोश =मदिरा-प्रेमी )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, April 15, 2015

मुक्तक : 698 - मैं फ़क़ीर हुआ ॥


वो मुझसे तब कहीं ज़रा असर-पज़ीर हुआ ॥
अमीर-ऊमरा से जबकि मैं फ़क़ीर हुआ ॥
किया तभी है उसने मुझको दिल में क़ैद अपने ,
जब उसकी ज़ुल्फ़ का मैं बेतरह असीर हुआ ॥
( असर-पज़ीर=प्रभावित ,अमीर-ऊमरा=धनवान ,असीर=क़ैदी )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, April 14, 2015

अकविता (15) - सारे फ़साद की जड़ है फ़ुर्सत ।


     कवच
     होते हैं वार से बचने को ,
     मरीजों के लिए होते हैं
     डॉक्टर ,
     अपराधों की रोकथाम अथवा
     न्याय के लिए हैं –
     पुलिस और अदालतें
     बिगड़ों के लिए सुधारक
     अज्ञानियों हेतु –
     स्कूल और कॉलेज
     यह लिस्ट और भी लंबी खींची जा सकती है -
     किन्तु मेरा सिर्फ इतना कहना है कि
     हम क्यों यह चाहते हैं कि
     वार न हों ,
     रोग न हों ,
     अपराध न हों.......आदि-आदि ?
     सोचिए !
     क्या इससे बेरोज़गारी और न बढ़ जाएगी ?
     कवच कौन खरीदेगा ?
     डॉक्टर किसका उपचार करेंगे ?
     मेडिकल स्टोर ठप्प पड़ जाएंगे ,
     पुलिस महकमा बंद करना पड़ेगा ,
     अदालतों में जज किसको न्याय देंगे ?
     सुधारक किसे उपदेश देंगे.........इत्यादि ?
     लब्बोलुआब यह कि
     हम क्यों फटे में टाँग अड़ाएँ ?
     संसार जैसा चल रहा है चलने दें ।
     बस बेकार न रहें , निकम्मे न बैठे दिखें
     क्योंकि
     सारे फ़साद की जड़ है फ़ुर्सत

                                                     -डॉ. हीरालाल प्रजापति

Monday, April 13, 2015

मुक्तक : 697 - मैं ग़ज़ल कहता हूँ ॥


क़िला किसी को , किसी को मैं महल कहता हूँ ।।
किसी को चाँद , किसी रुख़ को कमल कहता हूँ ।।
सुने न ग़ौर से अल्फ़ाज़ मेरे कान उनके 
बड़े ही शौक़ से फिर भी मैं ग़ज़ल कहता हूँ ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, April 12, 2015

गीत (35) - स्वर्ण-अक्षरों में लिखना है ॥





कुछ ऐसा जो कभी किसी ने नहीं लिखा –
मुझको वह सब स्वर्ण-अक्षरों में लिखना है ॥
नोचूँगा मुखड़ों से मुखौटे हो निशंक ,निर्भय ।
खोलूँगा सब पोल प्राण हो जाएँ चाहे क्षय ।
सच कहने के दुष्परिणाम से से बचने वालों को ।
झूठ बोलकर लाभ प्राप्ति कर नचने वालों को ।
जो अब तक भी कभी किसी ने नहीं कहा –
मुझको चिल्ला-चिल्ला कर वह सब कहना है ॥
जब हम उनको पूजा करते या लतियाते हैं ।
कहते हैं निष्प्राण मूक पत्थर बतियाते हैं ।
यह घटना प्रायः होती कम या अति चुनी हुई ।
मुझसे भी जाने अनजाने यह अनसुनी हुई ।
मेरे कानों ने जो जो भी नहीं सुना –
मुझको ध्यान लगाकर वह सब कुछ सुनना है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...