Monday, April 20, 2015

मुक्तक : 702 - बस तुम ही मुब्तसिम !


इक लफ़्ज़ ग़म के नाम का नहीं ज़बान पर ॥

आँखेँ  नहीं दिखाई दें कभी भी तर-ब-तर ॥

इस अश्क़ अफ़्साँ दनिया में तुम्हीं हो मुब्तसिम ,

सचमुच हो शादमाँ कि सिर्फ़ आओ तुम नज़र ?

( अश्क़ अफ़्साँ =रोने वाला  ,मुब्तसिम=मुस्कुराने वाला ,शादमाँ=आनंदित  )

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...