Sunday, April 12, 2015

गीत (35) - स्वर्ण-अक्षरों में लिखना है ॥





कुछ ऐसा जो कभी किसी ने नहीं लिखा –
मुझको वह सब स्वर्ण-अक्षरों में लिखना है ॥
नोचूँगा मुखड़ों से मुखौटे हो निशंक ,निर्भय ।
खोलूँगा सब पोल प्राण हो जाएँ चाहे क्षय ।
सच कहने के दुष्परिणाम से से बचने वालों को ।
झूठ बोलकर लाभ प्राप्ति कर नचने वालों को ।
जो अब तक भी कभी किसी ने नहीं कहा –
मुझको चिल्ला-चिल्ला कर वह सब कहना है ॥
जब हम उनको पूजा करते या लतियाते हैं ।
कहते हैं निष्प्राण मूक पत्थर बतियाते हैं ।
यह घटना प्रायः होती कम या अति चुनी हुई ।
मुझसे भी जाने अनजाने यह अनसुनी हुई ।
मेरे कानों ने जो जो भी नहीं सुना –
मुझको ध्यान लगाकर वह सब कुछ सुनना है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बैसाखी और अम्बेदकर जयन्ती की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार (14-04-2015) को "सब से सुंदर क्या है जग में" {चर्चा - 1947} पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...