मुझको वह सब स्वर्ण-अक्षरों
में लिखना है ॥
नोचूँगा मुखड़ों से मुखौटे
हो निशंक ,निर्भय ।
खोलूँगा सब पोल प्राण
हो जाएँ चाहे क्षय ।
सच कहने के दुष्परिणाम
से से बचने वालों को ।
झूठ बोलकर लाभ प्राप्ति
कर नचने वालों को ।
जो अब तक भी कभी किसी
ने नहीं कहा –
मुझको चिल्ला-चिल्ला
कर वह सब कहना है ॥
जब हम उनको पूजा करते
या लतियाते हैं ।
कहते हैं निष्प्राण
मूक पत्थर बतियाते हैं ।
यह घटना प्रायः होती
कम या अति चुनी हुई ।
मुझसे भी जाने अनजाने
यह अनसुनी हुई ।
मेरे कानों ने जो जो
भी नहीं सुना –
मुझको ध्यान लगाकर वह
सब कुछ सुनना है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
1 comment:
बैसाखी और अम्बेदकर जयन्ती की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार (14-04-2015) को "सब से सुंदर क्या है जग में" {चर्चा - 1947} पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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