Wednesday, April 22, 2015

162 : ग़ज़ल - आईना पारा वाला



आईना पारा वाला बंदर का देख ।।
हैराँ हूँ शीशे का घर पत्थर का देख ।।1।।
बाहर से वह लगती गंगा-जमुना ठीक ,
छी ! उसको पाया नाली अंदर का देख ।।2।।
इतना अलसाया था जा लेटा फ़िलफ़ौर ,
कुछ ना सोचा बिस्तर भी खंज़र का देख ।।3।।
कुछ तो राज़ है वर्ना यूँ ही भूखा शेर ,
क्यों नाँँ हो हम्लावर झुण्ड बक़र का देख ?4।।
( बक़र = गाय , बैल )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


2 comments:

Madan Mohan Saxena said...

वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Madan Mohan Saxena जी !

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...